छुक छुक करती आई रेल
और मचा फिर ठेलम ठेल।।
हुई व्यवस्था सारी फेल।
चढने में हम जाते झेल।
यात्री करते भीषण शोर
लगा रहे सब अपना जोर।
कुली दौड़ते चारो ओर।
घात लगाये तकते चोर
मम्मी बोली बेटा जाग
हुआ सवेरा आलस त्याग।
टूटा सपना आया होश
सपने में था कैसा जोश।।
(चौपई छंद)
सुरेन्द्र नाथ सिंह ‘कुशक्षत्रप”
हा हा हा …..मजा आ गया सर…..रेल का डिब्बा नज़र आ गया….बहुत खूबसूरत……..
आदरणीय बब्बू जी मेरी रचना पसंद आई तो मन खुस हुवा
किसी भी रचनाकार को तारीफ सुनना पसंद आता है और फिर जब आप जैसे प्रतिभा सम्पन्न लोगो के मुख से सुनता हूँ तो दिल बाग़ बाग़ हो जाता है।
बेहतरीन बाल कविता, कोमल मनोभाव को दर्शाती
आपकी इस प्रतिक्रिया के लिए दिल से आभार
सुरेन्द्र जी ,मन प्रसन्न हो गया ,बहुत सुन्दर ?
आपको’बालेन्दु ‘की उपाधि मिलनी चाहिए
इतनी खुबसूरत प्रतिक्रिया के लिए सादर अभिवादन
वाह वाह सर!!! रेल की सवारी में मज़ा आ गया।।
ह्रदय तल से आभार डॉ स्वाति गुप्ता जी
सच में क्या कला है आपकी….. बाल कविता चौपाई छंद में
बहुत ही खूबसूरत……… काबिले तारीफ ।
काजल जी अतिशय आभार आपका रचना को मान देने के लिए
Nice one…Thanks..
ह्रदय से आभार दवे जी
हा हा हा हा…………………….. बालपन के सपने। छूक छूक छूक छूक रेलगाड़ी। बहुत खूब।
आदरणीय शितलेश जी हृदय से आभार
सुरेन्द्र जी बहुत सुन्दरता से बाल मन की विशेषताओं का वर्णन करते हैं आप………, अत्यन्त सुन्दर रचना !!
आदरणीय मीना जी बहुत बहुत आभार आपका
सपने को हकीकत में बदलने अनूठा अंदाज …………..शिल्पकारी का एक और नायाब नमूना बहुत अच्छे !!.
आदरणीय निवातिया सर आशीष आपका