जो सर सरहद पर
न झुका
उस सर को
कुचल ते देखा….
जिन हाथों को
दुश्मन के गले दबाते
देखा
उन हाथों को मज़बूरी में
जुड़ते देखा …..
जो आँखे सरहद पर
अंगारे उगलती
उन्ही आँखों को मज़बूरी के
आंसुओं से भरा देखा……
क्योंकि ..
आज वो सरहद पर नहीं
अपनी सरकार
की देहरी पर खड़ा है…..
*होके मजबूर*
कपिल जैन
कपिल जी खुब सूरत………………..
एक निवेदन, समय निकलकर और कविओ की रचनाएँ भी देखें
Lovely sarcasm…………….
बहुत बढ़िया………….
अति सुंदर रचना है. एक बार शराब (गजल) पढ़कर अपनी बहुमूल्य प्रतिक्रिया दें.
WELL SAID……………….BEAUTIFUL KAPIL …!
Very Nice….Thanks….