लब्ज़ों का खेल तो देखो …..
ना कोई साथी व ना ही है कोई हमसफ़र
हुआ ना था कभी मैं तन्हा इस कदर ….
आज मेरे ही लब्ज़ इस तन्हाई का कारण बन गए
क्योंकि ये लब्ज़ कुछ कड़वे सच्चे शब्द कह गए….!!
वक्त का खेल तो देखो ….
इक अजनबी मोड़ पर आ तन्हा खड़ा हूँ
फिर भी अपने ज़िद्दी ज़िद्द पर अड़ा हूँ …
तन्हा हूँ तो क्या हुआ
ये तन्हाई मुझे क़ुबूल है …
इक बार जोड़ा था दिल से
अटूट विश्वास का तार
अब न करनी फिर से
मुझे कोई वैसी भूल है….
बेवफा भरी राहत- ए-निगाह की अब ख्वाहिश नहीं
मुझे मेरे छिले जिस्म की जलन ही क़ुबूल है ….!!
व्यक्तिगत भाव अभिव्यक्ति। लेकिन सुन्दर । मेरे अनुसार लब्जों की जगह लफ्जों होनी चाहिए थी।अच्छी रचना अंकिता जी।