“”दिल के अरमानों ने कर ली है खुदखुशी शायद
बरसात की बूँदों ने जी भर है रो ली शायद।
गुनाहों की टहनियों पे लटका हुआ हूँ
ऐसा लगता है पथ से भटका हुआ हूँ।
मंजिल की राह का कुछ पता नहीं
मत कोस किस्मत तू खुद को , इसमें तेरी कोई खता नहीं।
भटकते -गुजरते उस बेसकीमती राह को ढूँढना ही होगा
जहाँ से मेरे लिए कल इक नया सबेरा होगा..”!!!!
Nice…………………………….
अंकिताजी….आप रचना में लगता उलझ सी गयी हैं…भाव सुन्दर हैं आपके… मैंने कोशिश की है आपकी रचना को समझने की…आप इस पे गौर करियेगा…यही कहना चाहती क्या आप….कृपया अन्यथा मत लेना….मैं भी सीख रहा सो अपने विचार बता रहा…
दिल के अरमानों ने कर ली है खुदखुशी शायद
बरसात की बूँदें भी जी भर है रो ली शायद।
ऐसा लगता है पथ से भटका हुआ हूँ मैं
गुनाहों की टहनियों पे लटका हुआ हूँ मैं
मंजिल की राह का मुझे कुछ पता नहीं
मत कोस किस्मत तू खुद को, इसमें तेरी कोई खता नहीं।
पानी है गर मंज़िल मुझे उस राह को ढूंढना होगा…
भगा कर अंधेरों को मन से सवेरा नया लाना होगा…
good………………………
भाव बहुत सूंदर हैं. आप एक बार “पहचान” पढ़ें.
भावाभिव्यक्ति बहुत अच्छी है अंकिता ………बब्बू जी के सुझाव सराहनीय है …….अम्ल करे !!