उठता धुंआ सा, कभी बुझता दीया सा तू लगे है मुझे।
कल्पनाओं से परे, तो कभी दामन में मेरे तू लगे है मुझे। ।
भ्रमित करती मेरे सपनो की मरीचिका ,
कभी मेरे ख्वाब सा , कभी हकीकत सा तू लगे है मुझे।
गुमसुम समंदर सा , कभी ठहरा किनारा सा तू लगे है मुझे।
हौसलों की उड़ान भरता लहरों की मौज पे ,
कभी कटी पतंग सा , तो कभी साहिल पे डूबी कश्ती सा तू लगे है मुझे।
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शीतलेश थुल
very nice sir………………….
Thank you very much Mani Sir……
बहुत बढ़िया………..सिर्फ एक सलाह है मन में गुनगुना के देखिये “तू” की जगह है लगा के सिर तू को लगा से पहले लगा के लेय को देखिये…..
माफ़ी चाहूंगा शर्मा जी परंतु मुझे स्पष्ट रूप से समझ नही आ रहा के शब्दो में परिवर्तन कहा कर के देखना होगा। एक पंक्ति लिख कर कृपया बताये।
शीतलेश जी…जैसे उठता धुंआ सा, कभी बुझता दीया सा तू लगे है मुझे…इस ढंग से तू और है का प्रयोग…मोबाइल से दिक्कत होती मुझे भी तो नहीं क्लियर कर पाया…….
आदरणीय शर्मा जी। आपके निर्देशानुसार और हितकर प्रतिक्रिया के उपरान्त मैंने इस रचना में परिवर्तन किया है। इस परिवर्तन से मेरी रचना में निखार आ गया। आपके इस बहुमूल्य सहयोग और हितैषी व्यवहार हेतु मेरा नमन स्वीकार करे। सहृदय धन्यवाद शर्मा जी। मैं आभार व्यक्त करता हूँ।
यह आप का बढ़प्पन है…मुझे गुनगुनाते समय जो लय अछि लगती वो कह देता बस….आपको भी अच्छा लगा बहुत बहुत आभार…..
Beautiful lines………………….. …
Thank you very much Surendra Sir……
बहुत सूंदर ……………………………
बहुत बहुत धन्यवाद विजय जी।
क्या बात है बहुत खूब………….
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बहुत बहुत धन्यवाद काजल जी।