देख रही हैं जमीं आसमां को, जैसे कुछ ढूंढ रही हो,
कब आयेगा मेरा बादल, मन ही मन ये पूछ रही हो,
चुप्पी साधे खड़ा आसमां, नीचे सिर झुकाता है,
रोता है अन्दर ही अन्दर, आंसू गिरा ना पाता है,
हर रोज सूरज तपिश से अपनी, जमीं को यूँ जलाता है,
कह रहा हो जैसे उससे, तेरा बादल क्यूँ तुझे नहीं बचाता है,
रातों के अंधियारों में, छिपकर चाँद निकलता है,
झुलस चुकी जमीं के घांव पर, मरहम रोज लगाता है ,
जल्दी आयेगा तेरा बादल, हर रात तसल्ली देता है …
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शीतलेश थुल
bahut achchhey prabhawit karati rachna. wah kya baat hai.
आपकी सकारात्मक प्रतिक्रिया हेतु तहे दिल से आभार शर्मा जी।
very nice shitlesh ji……………
Thank you very much Mani Sir……………
वियोग में प्रतीक्षारत भावो का खूबसूरत संयोजन ………….अति सुन्दर शीतलेश !!
आपकी इस खूबसूरत प्रतिक्रिया के लिये मैं आभार व्यक्त करता हूँ। सहृदय धन्यवाद निवातियाँ साहब।
अत्यंत सुंदर……वाह………
बहुत बहुत धन्यवाद शर्मा जी।
आपने भाव को बेहतरीन ढंग से बाधा है आदरणीय शितलेश जी
बहुत बहुत धन्यवाद कुशक्षत्रप साहब।
Beautifully written…………………………….
Thank you very much Vijay Sir……