पढ़ने से तो अच्छा होता अनपढ़ ही रहते
दूर ना जाते घर से गाँव की मिट्टी में रहते
जॉब ना लगने का डर रहता ना बचपन खोते
माँ बाबा के साथ में रहते गोद में हम सोते
पढ़ने से तो …………………………………………हम सोते
काम इतने व्यस्त हुए रिश्तों को अपने भूल गये
मान भावना दूर हुई दिल पत्थर और बेजार हुये
प्रेम शान्ति खो गयी है शहर की इन गलियों में
भागदौड़ में छोड़ आये हम खुशियों को रुपयों मे
पढ़ने से तो …………………………………………हम सोते
पढ़ लिखकर बन गये हैं साब दुनियां को रुलायें
आगे बढ़ने की चाहत में सीढ़ी उन्हें बनाये
छिन गयी आज़ादी अपनी ये वो जान ना पाये
सुबह को भागे रात लोटे घर में कलह मचायें
पढ़ने से तो …………………………………………हम सोते
प्रदूषण हम करते करते जहर घोल कर आये हैं
औरों पे पत्थर फेंकें हम खुद पत्थर बन आये हैं
संस्कृति संस्कार रौंद नई पीढ़ी को तरसायें
है नही भान ये उनको कितना दुःख पहुचायें
पढ़ने से तो …………………………………………हम सोते
चिंतन हमको करना था वहाँ चिंता हम बढाये है
वो ना निकले हमसे आगे आतंक हम कर आये हैं
किस्मत को बनाने खातिर मक्कारी कर आये है
प्यार को जो बोना था वहाँ नफरत हम बो आये है
पढ़ने से तो …………………………………………हम सोते
“मनोज कुमार”
bahut hi uttam sir…………………………..
हार्दिक आभार मनी जी
.अति सुंदर…………………………………….
रचना पसंद करने के लिए धन्यवाद विजय जी
रचना के अंत:करण में जीवन की सच्चाई छुपी है…………………खूबसूरत रचनात्मक्ता ….अति सुन्दर मनोज कुमार !
गीत को सराहने के लिए बहुत बहुत आभार निवातियाँ जी