रुत भी बदलती है..
हवा की रुख़ भी बदलती है…
कुछ यूँ ही
तह -ब -तह अतीत के कोरे पन्ने
बरसों बाद आज पलटा मैंने। ..
जो राह छोड़ आया था बरसों पहले
उसी राह पर फिर आ खड़ा हूँ उदासी को पहने।
सींचा था जहाँ खुशियों के छोटे पौधे को
आज वहाँ तन्हाई के घने पेड़ है पनपे।
जहाँ सुहानी शाम खूब तफरी किया करती थी
आज वही शाम अपाहिज़ बनी बैठी थी। .
जहाँ चाँद और चकोर के प्यार भरे वर्तालाप से
हुआ करता था पूरा शमा चमकीला
वहाँ आज चाँद था बिल्कुल अकेला। .
अँधेरे का राज था और था बेबस उजाला। .
ठिठोलियां -अटखेलियाँ ये सब पहले की बात थी,
सच तो ये था बस आज वहाँ
इक बेबस लाचार वीरानी -सी रात थी.. ।
रुत भी बदलती है..
हवा की रुख़ भी बदलती है…
कुछ यूँ ही
तह -ब -तह अतीत के कोरे पन्ने
बरसों बाद आज पलटा मैंने।
~अंकिता ~
अंकिताजी…….आपके भाव बहुत ही खूबसूरत है…..कुछ टंकण की गलतियां हैं….कुछ शब्दों का चयन और सुन्दर हो सकता … जैसे तह ब तह की जगह आप पर्त् दर पर्त् करें तो कैसा रहे….शमा चमकीला नहीं समझ आया….समां कहना चाहती क्या…. शाम की बात हो रही तो शाम चमकीली या शब् चमकीली… बेबस उजाला की जगह बेबस चाँदनी सोच के देखिय जब चाँद की बात हो रही है तो….
बहुत -बहुत शुक्रिया। … मार्गदर्शन के लिए….
मुझे पता है मैं साहित्य में उतनी अच्छी नहीं हूँ मैं इंजीनियरिंग क्षेत्र से हूँ
और लिखना मेरा शौक है ॥
आपलोगों मार्गदर्शन से मुझे बहुत कुछ सीखने को मिलता है
ऐसे ही मार्गदर्शन रहियेगा सर। …बहुत आभार आपका ….
आदरणीय बब्बू जी का सुझाव उत्तम, थोडा टंकण त्रुटी से बचें
जी बहुत आभार आपका
very nice………………….
thanku sir
शब्दो का बेहद ही खूबसूरती से ताना-बाना बुना है आपने अंकिता जी। बहुमूल्य प्रतिक्रियाओं पे थोड़ा ध्यान अवश्य दीजियेगा।
जी जरूर बहुत आभार आपका सर।
बहुत खूब……………………………………अति सुंदर……………………..
सर बहुत आभार आपका ..||