कभी अपनों से अनबन है कभी गैरों से अपनापन
दिखाए कैसे कैसे रँग मुझे अब आज जीबन है
ना रिश्तों की ही कीमत है ना नातें अहमियत रखतें
रिश्तें हैं उसी से आज जिससे मिल सके धन है
सियासत में नहीं युबा , बुढ़ापा काम पा जाता
समय ये आ गया कैसा दिल में आज उलझन है
सच्ची बात किसको आज सुनना अच्छी लगती है
सच्ची बात सुनने को ब्याकुल ये हुआ मन है
जीबन के सफ़र में जो मुसीबत में भी अपना हो
“मदन ” साँसें जिंदगी अपनी उसका ही तो दर्पण है
सच्ची बात किसको आज सुनना अच्छी लगती है
मदन मोहन सक्सेना
सर कही जगह टंकण त्रुटी है आप कही जगह व् के जगह ब लिखे है जैसे जीवन की जीबन, युवा की जगह युबा इत्त्यादी। पुनरवलोकन कर रचना परिष्कृत करें तो और अच्छा लगेगा
रचना खूबसूरत है सुरेन्द जी की बातो पर गौर करे !!
बहुत खूबसूरत…………