सोच का इक दायरा है, उससे मैं कैसे उठूँ
सालती तो हैं बहुत यादें, मगर मैं क्या करूँ
ज़िंदगी है तेज़ रौ, बह जायेगा सब कुछ यहाँ
कब तलक मैं आँधियों से, जूझता-लड़ता रहूँ
हादिसे इतने हुए हैं दोस्ती के नाम पर
इक तमाचा-सा लगे है, यार जब कहने लगूँ
जा रहे हो छोड़कर इतना बता दो तुम मुझे
मैं तुम्हारी याद में तड़पूँ या फिर रोता फिरूँ
सच हों मेरे स्वप्न सारे, जी, तो चाहे काश मैं
पंछियों से पंख लेकर, आसमाँ छूने लगूँ
वाह्ह्ह्ह्ह् बहुत ही सुन्दर सृजन आदरणीय ।
खूबसूरत रचनात्मकता ……………………..!!
बहुत ही सुंदर रचना.
बेहतरीन महावीर जी……………….
I am your fan sir…………….really very nice
बहुत उम्दा महावीर जी…
comments ke liye sabhi ka shukriya