चाह नहीं तेरे गीतों में
चाह नहीं तेरे गीतों में
एक पंक्ति-सा मैं बन जाऊँ
चाह नहीं तेरी वीणा में
उलझ तार-सा बस बन जाऊँ
काव्य सुधारस पाऊँ तेरा
इन प्राणों की चाह नहीं है
तेरी प्रिय वाणी पर नाचूं
इन गीतों की चाह नहीं है
चाह नहीं तुझसे मिलने को
तन तजकर मैं बाहर आऊँ
चाह नहीं तेरे गीतों में
एक पंक्ति-सा मैं बन जाऊँ
तू चाहे तो नवरस भर दे
खाली घट में लीला भर दे
चाहे तो बंशी की धुन से
प्राणों में अपना स्वर भर दे
चाह नहीं इन क्षणिक सुखों में
प्राणों का सर्वस्व लुटा दूं
चाह नहीं तेरे गीतों में
एक पंक्ति-सा मैं बन जाऊँ
सुन मेरे गंभीर सुरों को
तू क्योंकर आँसू रचता है
बड़ी वेदना होती जब जब
तू मेरा आँसू बनता है
चाह नहीं तू शीश झुका दे
जब मैं माला तूझे चढ़ाऊँ
चाह नहीं तेरे गीतों में
एक पंक्ति-सा मैं बन जाऊँ
तू दूर रहे तो दूर रहे
मैं क्यूं तेरे सम्मुख आऊँ
है तुझमें अभिमान बहुत तो
मैं क्यूं तेरा गर्व मिटाऊँ
चाह नहीं पर जब तू गावे
मैं अपने सब गीत बुझा दूं
चाह नहीं तेरे गीतों में
एक पंक्ति-सा मैं बन जाऊँ।
जग के कण-कण में तू ही तो
अपने को बंदी रखता है
मुक्त वहीं मैं रहना चाहूं
कैद जहाँ तू खुद रहता है
चाह नहीं तेरी बेड़ी में
तुम संग मैं भी बँधता जाऊँ
चाह नहीं तेरे गीतों में
एक पंक्ति-सा मैं बन जाऊँ।
… भूपेन्द्र कुमार दवे
00000
उम्दा सर जी……………
Bahut accha Bhupendra jee
माखन लाल चतुर्वेदी की रचना “पुष्प की अभिलाषा” ….. से मिलता जुलता लग रहा हैं ।
…….. वही लय…. पर शब्द अलग है
” चाह नहीं मैं सुरबाला के
गहनों में गुधा जाऊ ”
इस तरह……..
पर अच्छा लिखा है आपने …….
आपने इतने महान कवि का उल्लेख कर बहुत ही सुन्दर तरीके मेरी रचना को सराहा। मैं गद् गद् हो हो उठा। धन्यवाद।
बहुत सुन्दर………..
बहुत सुन्दर………………………………………
सर्वश्री सुरेन्द्र नाथजी, डा विवेक कुमारजी, काजल सोनी जी, बाबू सी एम जी एवं विजय कुमारजी …
आप सबने मेरी रचना की सराहना कर मेरा उत्साह बढ़ाया। मैं आप सबका तहेदिल से आभारी हं।