अपनों के बीच खुद को पाया अकेला
शर्म आती है इन अपनों को अपना कहते हुए
अपनों ने दिए ज़ख्म इतने कि…….. (1)
नासूर बन गए दिल और दिमाग के ज़ख्म
पराये को गर अपनाती तो शायद बच जाती मैं
अब तो डर लगने लगा है किसी को अपना बनाने में
अपनों ने दिए ज़ख्म इतने कि….. (2)
कौन अपना कौन पराया
ये इंसान तो जानवरो से भी गया गुज़रा है
बेजुबान जानवरों में तो इंसानियत है…
पर इंसान में इंसानियत कहाँ खो गयी
अपनों ने दिए ज़ख्म इतने कि… (3)
ना जिया जाता है
ना मरा ही जाता है
अपनों को ही मालूम था
दिल में छेद कहाँ है
अपनों ने दिए ज़ख्म इतने कि……..(4)
कहते थे सब कभी
परायों से ना करना दिल कि बातें…
उनसे छुपाना हर बातें..
वो कभी साथ ना देंगे
मुझे इन्होंने ही घायल किया
अब शिकायत किस से करें..
अपनों ने दिए ज़ख्म इतने कि…….. (5)
वक़्त के साथ अपने भी बदल जाते हैं
रंग बदलते हैं अपने खो जाते हैं
भीड़ में देखा तो पराये भी पहचान में आये
ना पहचान पाए तो वो अपने थे
अपनों ने दिए ज़ख्म इतने कि……..(6)
काश ज़ख्म किसी पराये ने दिए होते तो
बर्दाश्त कर लेते हम
जिन अपनों से प्यार था
वो सब आज सौदागर और साहूकार निकले,,,
अपनों ने दिए ज़ख्म इतने कि……..(7)
आज मालूम पड़ा
दोष उन अपनों में ना था.
दोष तो मुझमें ही था
जिनको मे अपना समझ रही थी,,,
वो तो मुझे कबका पराया कर चुके थे,,,
अपनों ने दिए ज़ख्म इतने कि……. (8)
अच्छा हुआ इन अपनो के जख्म ने,,,
दिखा दिया रस्ता,,,
मेरा प्रभु ही मेरा अपना है ,,,
ना दूसरा कोई मेरा अपना,,,
अपनों ने दिए ज़ख्म इतने कि…….. (9)
आपकी रचना अच्छी है। कुछ टंकण त्रुटी सुधार ले आप
आप को बहत ही धन्य्बाद जो आपने मेरे काबीता को पढ़ा. जी हाँ मेरी काबीता मे ज़रूर कुच्छ ग़लतियाँ होंगी कयऔं की मैं दूसरे ल्वॅंग्यूयेज से हूँ.
अगर आप तोड़ा ठीक करलेंगे तो बेहत ही अच्छा होगा.
sir it was corrected & updated…Thank you.
अच्छा लिखा आपने…हाँ ताकत गलितयों से रुकावट आयी….नहीं तो और सुन्दर लगता….
आप को बहत ही धन्य्बाद जो आपने मेरे कबिता को पढ़ा. जी हाँ मेरी कबिता मे ज़रूर कुच्छ ग़लतियाँ होंगी कयऔं की मैं दूसरे ल्वॅंग्यूयेज से हूँ.
अगर आप तोड़ा ठीक करलेंगे तो बेहत ही अच्छा होगा.
अपनों के बीच खुद को पाया अकेला
शर्म आती है इन अपनों को अपना कहते हुए
अपनों ने दिए ज़ख्म इतने कि…….. (1)
नासूर बन गए दिल और दिमाग के ज़ख्म
पराये को गर अपनाती तो शायद बच जाती मैं
अब तो डर लगने लगा है किसी को अपना बनाने में
अपनों ने दिए ज़ख्म इतने कि….. (2)
कौन अपना कौन पराया
ये इंसान तो जानवरो से भी गया गुज़रा है
बेजुबान इंसान जानवरों में तो इंसानियत है…
पर इंसान में इंसानियत कहाँ खो गयी
अपनों ने दिए ज़ख्म इतने कि… (3)
ना जिया जाता है
ना मरा ही जाता है
अपनों को ही मालूम था
दिल में छेद कहाँ है
अपनों ने दिए ज़ख्म इतने कि……..(4)
कहते थे सब कभी
परायों से ना करना दिल कि बातें…
उनसे छुपाना हर बातें..
वो कभी साथ ना देंगे
मुझे इन्होंने ही घायल किया
अब शिकायत किस से करें..
अपनों ने दिए ज़ख्म इतने कि…….. (5)
वक़्त के साथ अपने भी बदल जाते हैं
रंग बदलते हैं अपने खो जाते हैं
भीड़ में देखा तो पराये भी पहचान में आये
ना पहचान पाए तो वो अपने थे
अपनों ने दिए ज़ख्म इतने कि……..(6)
काश ज़ख्म किसी पराये ने दिए होते तो
बर्दाश्त कर लेते हम
जिन अपनों से प्यार था
वो सब आज सौदागर और साहूकार निकले,,,
अपनों ने दिए ज़ख्म इतने कि……..(7)
आज मालूम पड़ा
दोष उन अपनों में ना था.
दोष तो मुझमें ही था
जिनको मे अपना समझ रही थी,,,
वो तो मुझे कबका पराया कर चुके थे,,,
अपनों ने दिए ज़ख्म इतने कि……. (8)
अच्छा हुआ इन अपनो के जख्म ने,,,
दिखा दिया रस्ता,,,
मेरा प्रभु ही मेरा अपना है ,,,
ना दूसरा कोई मेरा अपना,,,
अपनों ने दिए ज़ख्म इतने कि…….. (9)
Thank you so much for correcting my grammatical mistakes…..
बहुत खूब……………………………………..
आप का बहत धन्यबाद आपने मेरे काबीता को पढ़ा.
बहुत ही सुंदर…………..
Thank you that you like my poem.