शांत रहिये, शांत रहिये
यह शब्द क्यों चुभने लगे है आज कल ,
क्या शांत रहने के लिए ही ,
ईश्वर ने दी थी जुबान।
क्या यह मेरी गलती थी कि घर की बड़ी से ,
ससुराल में सबसे छोटी बनना पड़ा ,और अभी ,
छोटा बनने का प्रयास ही कर रही थी कि ,
अचानक ही सारी जिम्मेदारियो के साथ ,
मुझे फिर से बड़ा भी बना दिया गया।
इस बड़े से छोटा और फिर छोटे से बड़ा बनने की ,
प्रक्रिया में मेरा बचपन तो कही खो ही गया.
उस खोए हुए बचपन को ,
फिर से जी तो लेने दो ,
फट गया है मनमें जो ,
उसको सी तो लेने दो।
मन में भरा है वह सब कुछ ,
एक बार कहना चाहतीं हूँ ,
मरने के पहले फिर से ,
एक बार जीना चाहतीं हूँ।
पर हर बार तुम मुझे यूँ ,
शांत क्यों करा देते हो ?
हो जाऊंगी शांत बिलकुल ही ,
बस मुझे कुछ दिन अपने मन की ,
कर लेने दो ,मन के टूटे मोती को ,
माला में पिरो लेने दो।
मन में जो कुछ सब , वह ,
आज मूझे कह तो लेने दो ,
मरने से पहले मुझे ,बस एक बार ,
पूरे मन से जी तो लेने दो।
वाह………क्या अंतर्मन की पीड़ा को बहाव दिया है…….बहुत उम्दा….
Dhanyvaad babbu ji
mam, मै आपकी इस रचना की कैसे तारीफ करू, सोच में पड़ गया। निःसंदेह आपकी सर्जनकता का जबाब नहीं।
पूरी जीवन की उस पीड़ा को रचनाबद्ध किया जिसकी टिस बहुत लोग झेलते है।
मुझे निकट भविष्य में जितनी रचनाये मिली पढने को, उसमे आपकी सार्वोत्तम
बहुत बहुत धन्यवाद सुरेद्र जी आपकी प्रशंसा और प्रोत्साहन के लिए।
मंजूषा जी बहुत ही सुंदर रचना ……..
बहुत बहुत धन्यवाद काजल जी।
Beautiful as usual…………………………………
Thank Vijay ji
behtarian……lajwab……………..
shukriya mani ji