आदरनीय शितलेश जी अगर आप रचना लिख दे तो हम जैसे मुफलिसी और आदिकालीन लोग भी पढ़ पाए, जैसा आप पहले करते थे, मै इमेज नहीं पढ़ पाता, यही निवेदन विजय जी से भी किया था! आज आप से भी
“क्यूँ रखती हूँ मैं चाहत तुझे पाने की,
क्यूँ सुनते है कान आहट तेरे आने की,
क्यूँ तुझमे है वो बात, जो बात नहीं भूल जाने की,
क्यूँ पड़ी मुझे आदत , दर्द में मुस्कुराने की,
क्यूँ है ये मज़बूरी, गमो को छुपाने की,
क्यूँ उठानी पड़ती है तकलीफें, दुखो को अपनाने की,
क्या जरूरत है मुझे अधूरे सपनो की,
आखिर क्यूँ जरूरत नहीं मुझे अपनों की…”
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पुनः हाँथ जोड़ के क्षमा चाहूंगा कुशक्षत्रप साहब। मैं स्मरण ना रख सका। प्रतिक्रिया के माध्यम से आपके लिये ये “पेशगी”…………
बहुत खूबसूरत………….
बहुत बहुत धन्यवाद शर्मा जी।
अति सुन्दर ………………!
बहुत बहुत धन्यवाद निवातियाँ साहब।
बेहद खूबसूरत………… पर अंतिम में थोड़ा सा फीका हो गया।
बस थोड़ा सा ।
आपके खूबसूरत सुझाव और फ़िक्रमंदी का मैं तहे दिल से इस्तेकबाल करता हूँ काजल जी। मैं भविष्य में इसे बेहतरीन बनाने का प्रयास करूँगा।
आदरनीय शितलेश जी अगर आप रचना लिख दे तो हम जैसे मुफलिसी और आदिकालीन लोग भी पढ़ पाए, जैसा आप पहले करते थे, मै इमेज नहीं पढ़ पाता, यही निवेदन विजय जी से भी किया था! आज आप से भी
“क्यूँ रखती हूँ मैं चाहत तुझे पाने की,
क्यूँ सुनते है कान आहट तेरे आने की,
क्यूँ तुझमे है वो बात, जो बात नहीं भूल जाने की,
क्यूँ पड़ी मुझे आदत , दर्द में मुस्कुराने की,
क्यूँ है ये मज़बूरी, गमो को छुपाने की,
क्यूँ उठानी पड़ती है तकलीफें, दुखो को अपनाने की,
क्या जरूरत है मुझे अधूरे सपनो की,
आखिर क्यूँ जरूरत नहीं मुझे अपनों की…”
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पुनः हाँथ जोड़ के क्षमा चाहूंगा कुशक्षत्रप साहब। मैं स्मरण ना रख सका। प्रतिक्रिया के माध्यम से आपके लिये ये “पेशगी”…………