*’माँ’ बाल कविता (ताटंक छंद)*
हे! माँ तेरी सूरत जग में, मुझको लगती प्यारी है।
तेरे बिन घर-मन्दिर सूना, सूनी दुनिया सारी है।
हट्टा-कट्टा हूँ फिर भी माँ दुबला मुझे बताती है।
काजू किसमिस गरी छुहारा, मुझको रोज खिलाती है।
खेल-कूद में खाना भूलूँ, तब माँ डांट लगाती है
दूध भात की थाली लेकर, पीछे-पीछे आती है।।
सजा धजा कर माँ नित मुझको, राजकुमार बनाती है
बुरी बला से बचा रहू मै, काजल खूब लगाती है।।
लोरी गाती गीत सुनाती परीलोक दिखलाती है।
मीठी थपकी दे-देकर माँ, मुझको रोज सुलाती है।।
लगती चोट मुझे तो माता, करुणा से भर जाती है।
मुझको होता दर्द कभी तो, आँसू खूब बहाती है।।।
मेरी खुशियों की खातिर माँ, लाखो कष्ट उठाती है।
सुने एक किलकारी मेरी, वह हँसती मुस्काती है।।
माँ राहों में फूल बिछाती, खुद काटों पर सोती है।।
कभी मार चांटा मुझको वह, अक्सर घंटों रोती है।।
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सुरेन्द्र नाथ सिंह ‘कुशक्षत्रप’
अत्यंत मनमोहक…मधुर…..प्यार से लबालब अल्फ़ाज़ों से आपने अपनी माँ को जो सुमन अर्पित किये हैं…. बेहतरीन लफ्ज़ बहुत छोटा है…. आपके भावों की महक हर दिल को महकाये…. और हमेशा आपको आपकी माँ का आशिर्वाद मिले जिस रूप में यहाँ भी हैं वो….जय हो…..
आदरणीय बब्बू जी, आपकी प्रतिक्रिया निःसंदेह मेरा उत्साहवर्धन और मार्गदर्शन करेंगी।
सर मैंने माँ को सिर्फ शब्दों में ही जाना है। क्योकि जब आँख खुली तो माँ ने आँखे बंद कर ली थी। बस बरबस ही उसके लिए यूँ अल्फाज आते है, कही उसकी रूह तो होंगी
सुरेंद्रजी…समझ सकता हूँ…आप पहले एक बार मेरी माँ की रचना की प्रतिकिर्या में आपने विचार रखे थे… बाप कम नहीं है किसी भी लिहाज़ से…हाँ मेरी नज़र में माँ एक ऐसा करिश्मा है जिसके बाद सिर्फ भगवान् है उसके बाद कुछ नहीं…. इस लिए जब हम ये समझते कि भगवान् हमारी भावना को समझते हैं….वो दीखते नहीं चाहे… माँ भी समझती है…वह अब चाहे ना दिखती हो…. जिस से हमारा वजूद है वो कभी अलग है ही नहीं हमसे….एक संस्कृत का श्लोक है…ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पुर्णमुदच्यते पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते …. आपको बाखूबी मतलब पता इसका…इस लिए मैं माँ को भी उसी रूप में देखता हूँ…नहीं है पास होता है महसूस पर मैं उसका अंश हूँ तो वो मुझेमें और मैं उसमें हूँ ही….कोई कहीं भी रहे….
बब्बू जी मै भी आपके हर कथ्य से सौ फीसदी सहमत हूँ।
आज भी माँ के लिए घंटो रोता हूँ। माँ की कमी बचपन से महसूस की है, पर जब औरो की माँ और खुद अपनी पत्नी को अपने बच्चे के लिए करुणा देखता हूँ तब मुझे यही लगता है की जमीन पर अगर भगवान् है तो वह माँ ही है।
यह मेरी माँ पर तीसरी रचना है! मै अपने सभी भाव अपनी रचना ने लाकर हर माँ के प्रति सच्ची भक्क्ति प्रकट करने की भरपूर कोशिश करता हूँ। कुछ कामयाबी मिलती है कुछ नाकयाबी। आप बब्बू जी जब अपनी प्रतिक्रिया में वाह वाह लिख देते है तो मुझे अपनी रचना सार्थक प्रतीत हो जाती है।
एक बालक द्वारा माँ की अदभुत छवि का काफी खूबसरती से चित्रण प्रस्तुत किया है आपने। वात्सल्य रस से भरपूर रचना…..
शितलेश थुल जी ह्रदय से आभार आपको
आपकी ह्रदय की वेदना को समझा जा सकता है सुरेंद्र …नियति के आगे किसी का बस नही चलता समय के अनुकूल परिस्थितयो को स्वीकार कर चलना पड़ता है …..यही कुच्च चीजे है जिनकी क्षतिपूर्ति तन मन धन या धन से नही की जा सकती …….यह सत्य है की कोई भी सहानुभूति के अलावा कुछ नही कर सकता ……मुझे यह कहने में कोई संकोच नही की सकारत्मक सोच के साथ जीवन की हर चुनोती को स्वीकार कर उसके समरूप ढलने का साहसिक कार्य जिंदादिल लोग ही किया करते ….आपके उसकी जीती जागती मिसाल है …….बड़ी खूबसूरत भावो में ममत्व की अनुभूति को आपने जिया है …कोटि कोटि बधाई आपको !!
निवातिया जी आपकी प्रतिक्रिया ने एक नायी उर्जा का संचार किया है। आपको नमन करता हूँ।
बेहतरीन भाव …………………..
आभार शिशिर सर………………..
अत्यंत सुंदर भाव…………. रचना भी कमाल की ।
धन्यवाद काजल mam……….