गजल (बह्र 2122 1122 1122 22)
जख्मे दिल साथ लिए घूमते जाने कितने
चाह समता की लिए आज दिवाने कितने।।
जाति का दंश मुझे आज सताता है बहुत
तोड़ने में हुए है सर्फ़ जमाने कितने।।
देख कर जाति गरीबी नही आती यारो
मेरे हक़ में वो बनाते है बहाने कितने।।
हार कर बैठ न जाना न मिले लक्ष्य अगर
आग में आहुति देते है न जाने कितने।।
जो चढ़ा शीर्ष पे चढ़ता ही गया है अब तक
जो हुआ दौड़ में पीछे सहे ताने कितने।।
कौम है एक हमारी ये हमीं क्यों भूले
एकता पर ही यहाँ गूँजे तराने कितने।।
योग्य गर है तो उसे हक से करे क्यों वंचित
तर्क संगत हो परख बात ये माने कितने।।
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सुरेन्द्र नाथ सिंह ‘कुशक्षत्रप’
यथार्थ का सटीक आकलन करती अत्यंत खुबसूरत रचना ।
कुछ रचनाये आपकी नजर के इंतज़ार में प्रतीक्षारत है ।
आपका हृदयतल से आभार आदरणीय निवातियाँ जी…..
शिक्षण गतिविधियों से कुछ ज्यादा ही व्यस्तता के कारण कुछेक रचनाये नजर नही हो पा रही, उसके लिये करबद्ध क्षमा
आप का जवाब नहीं ….सटीक…..लाजवाब हैं आप……
कोटिश धन्यवाद आदरऩीय बब्बू जी………………. आपके इस उत्साह वर्धन के लिये
बहुत सुन्दर…………,
धन्यवाद mam…………………..
bahut hi badiya sir………………………
धन्यवाद मनिंदर जी…………………..!
सुरेंद्र जी………. बहुत ही सुंदर……………..
………………. अनोखी रचना…………….. ।
काजल जी रचना पसंद करने के लिए आभार
लाजवाब रचना………………………..बहुत सुन्दर कुशक्षत्रप साहब।
शितलेश थुल जी हार्दिक आभार
bahut sundar chitran hai aapki. bahut khub.
बिन्देश्वर प्रसाद जी आपका अशिर्वाद मिला, खुसी हुयी
बेहतरीन सामाजिक सरोकार पर एक उम्दा ग़ज़ल.
धन्यवाद शिशिर जी ………………….