दूध नहीं बिलौती दादी
आजकल मेरेआँगन में
निकल जाते हैं माँ बाप
सुबह ही आनन् फानन में
नहीं झूले जाते
झूले अब तीजों के
नहीं उगाए जाते अब
बीज पीले फूलों के
चाबुक हैं किताबें मेरी
हर कोई मुझपर चलाता है
बस भागना भविष्य के लिए
ना राह कोई दिखाता है
नन्हे नन्हे हैं कंधे मेरे
उठाएं जो किताबों को
तुतलाती है जुबान मेरी
समझ तो लूँ हालातों को
नहीं लौटता मैं मिटटी में
ना ही चश्मे में नहाता हूँ
बड़ी नाज़ुक हो गई जिंदगी
मुश्किल से बचाता हूँ
स्कूल के बैगों में भरकर
कहाँ ले जाऊं इस जूनून को
बढ़ता वजन जला रहा है
अपनी नश्लों के खून को
आज के समाज की मजबूरी कहो कुछ भी कहो….है तो सब बोझ ही…और आपने बच्चे के मन के बोझ को बाखूबी उभारने की कोशिश की है……
अति सूंदर…………………
sir mera web page badal gaya hai dobara kaise normal karu
यथार्थ से परिपूर्ण खूबसूरत अभिव्यकित !!