शांत रहिये, शांत रहिये।
यह शब्द क्यों चुभने लगे है आज कल ,
क्या शांत रहने के लिए ही ,
ईश्वर ने दी थी जुबान।
वैसे तो मैं तुम्हारे कहने पर ,
ज्यादा तर ,शान्त ही हो जाती हूँ ,
मगर कभी कभी मेरा मन ,
विद्रोह भी तो कर बैठता है।
जानती हूँ कि तुम हमेशा ,
मेरे ही हित की सोचते हो ,
मगर कभी कभी तुम्हारा मेरा इस तरह ,
बहुत ज्यादा ख्याल रखना भी खल जाता है.
अच्छा हुआ कि तुम मुझे समय बेसमय ,
शांत करते रहे ,वर्ना मेरे मन के उदगार ,
इस तरह यूँ कविता का रूप कभी नहीं ले पाते,
शायद यह बहुत अच्छा ही हुआ।
अब जब जब तुम मुझे शांत रहने को ,
कहते हो तो मैं तुमसे कुछ भी नही कहती ,
ऊपर से तो विल्कुल शांत ही रहतीं हूँ ,
मगर मन ही मन मुस्कराती हूँ।
ऊपर से तो शांत ही रहतीं हूँ ,
मगर मन ही मन ,एक और नई कविता ,
रचती जाती हूँ या फिर एकबार फिर से ,
और इंतजार करती हूँ जब तुम फिर कहोगे,
” शांत रहिये ”
शांत रहिये बोल कर कविता केंजरिये हलचल मचा दी आपने। बहुत बढ़िया।
बहुत बहुत धन्यवाद आपके प्रोत्साहन के लिए
बहुत खुबसूरत भावनाओं का सृजन अति सुन्दर मञ्जूषा जी
हमारी कृति पर भी अपने अमुल्य विचार देकर अनुग्रहित करे ।
बहुत बहुत धन्यवाद आपका निवतिया जी .
बहुत खूबसूरत………
धन्यवाद बब्बु जी
मन को शांत करने का सबसे उपयुक्त रास्ता लेखनी है. अति सूंदर…………………
बहुत बहुत धन्य्वाद आपका विजय जी प्रोतसाहन और आपके बहुमुल्य सुजाव के लिए विजय जी.
बहुत उम्दा ……………..
शुक्रिया शिशिर जी.