तुम तब कितना अपने से थे….
कचरा ही सही सब निकालते थे…
और मैं…
उसको अपने अंदर..
कुछ इस तरह ढक लेती थी कि…
उसकी गंध किसी तक भी…
ख़ास कर तुम तक ना पहुंचे…
फ़िक्र थी तुम्हारी घुटन की…
बेशक मेरी सांसें उस गंध से घुट रहीं थी….
पर तुम्हारी साँसों को महसूस करने को…
अपनी साँसों का घुटना मंज़ूर था मुझे….
पर तुम…..
बिना बोले…
बिना मेरी घुटन को महसूस किये…
चले गए….
बदल दिया मुझको….
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/सी. एम्. शर्मा (बब्बू)
समर्पण और त्याग यह कुछ ऐसे गुण है जो सभी आम जन में नहीं मिलते।
कचरा पेटी के माध्यम से आपने औरो के खुसी के लिए खुद के सुख को त्याग देने की जो बात लिखी, उसके लिए कोटि कोटि वन्दन
समयाभाव के कारन मै सभी रचनाओ पर प्रतिक्रिया नहीं दे पा रहा हूँ, जिसके लिए क्षमा पार्थी
सुरेंद्रजी….मैं समझ सकता हूँ….आप क्षमा प्रार्थी लिख के दिल को ठेस मत लगायो… आप प्रतिकिर्या दो ना दो… आप अपनी रचना कोई ना कोई अवश्य समय निकल कर पोस्ट किया करें….इतनी प्रार्थना है…आपकी रचनाएं पढ़ कर आनंद आता है…. मुझे सच में पढ़ने से आप जैसे गुणीजनों से सीखने का जो भी वक़्त मिलता मैं उस सब के लिए भगवान् का शुक्र करता हूँ….
सुरेंद्र जी ने बहुत सही फरमाया है …………
बहुत ही अलग और सुंदर रचना।
बहुत अच्छा माध्यम बनाया आपने
कचरा पेटी को, अपने अल्फाज़ बयां करने के लिए।
अनोखी रचना…………………………. ।
काजलजी….आप का तहदिल आभार……
ह्रदय के भावो की वेदना को कचरा की संज्ञा देकर परिभाषित करना एक अच्छे लेखक/कवी की सर्जनात्मकता का प्रमाण है …………आपकी गहन विचारशीलता का ह्रदय से अभिवादन बब्बू जी !!
बहुत बहुत आभार आप का….आपका पसंद करने का……..
अति सुन्दर आदरणीय
अभिषेक जी…. बहुत बहुत आभार….आप जितना सम्मान देते हैं…भगवान् आप को आपकी लेखनी में ऊंचाईओ पे ले जाए…..