बेटियां
क्यूं मेरे दुनिया में आ जाने से दिक्कत थी तुम्हे
क्यूँ मिटा डाले निशा, और ना मेरी परवाह की |
चीख मेरी ना सुनी, ना दर्द का कोई शिकन
क्यूँ बहा दी रक्त मेरु अस्थियों की धार सी |
मार कर एक लिंग को, क्या है तेरा पौरुष बढ़ा
बेटियों में जन्म लेना क्या यही अपराध थी |
तुमने बोयी हर वो रश्मे, सोच कर अपने लिए
बेटियों को कर के कमतर, जख्म की सौगात दी |
लालची बेशक हो तुम, पर याद ये रखना मगर
बेटों के अपनी दुकान के, होगे तुम्ही खरीदार भी |
गर अभी भी ना रुके तो बात ये सुन लो मेरी
बाग़ तो होंगे मगर, एक ठूँठ की भरमार सी |
– धीरेन्द्र ‘प्रखर’
Beautiful expression ……………..
बहुत खूब……….
अच्छी रचना………………….. ।
खूबसूरत सकारत्मक सोच ………..अति सुन्दर !!
very nice sir………………………