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जीवन तो सम्पूर्ण प्रेम का मेला है।
फिर क्यों खड़ा तू दूर अपनों से अकेला है ।
कितने महान कर्मो का यह दर्पण है।
मानव हित और ईश्वर भक्ति में ही सर्मपण है ।
पवित्र रख मन यह तो देव निवास है।
मत कर अधर्म होता फिर बड़ा ही विनाश है ।
कलयुग चल रहा आज बहुत विचित्र प्राणी है।
अहंकार माया से भरा क्रोध में इसकी वाणी है।
कष्ट मिला कोई तेा रहा अवगुण है।
दोष मुक्त बन ज्ञान ही जीवन का गुण है।
अभिषेक शर्मा अभि
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बहुत खूब……………………सही लिखा है आपने.
हार्दिक आभार आदरणीय
बहुत खूब अभिषेक ………………!!
हार्दिक आभार आदरणीय
Marvellous………………
अभिषेक जी…आप जो भी लिखते हैं बहुत ही प्यारा लिखते हैं…सच में मजा आ जाता आप की रचना से….लाजवाब…….
लाजवाब क्या बात है…………………. ।