तेरी बज्म में सब कुछ खो कर ये मुकाम पाया हूँ
लबों की हसीं, रातों की नींद, दिल का आराम पाया हूँ
नफरतों की जमीन पर नहीं खिलते केसर के फूल
गीली मिट्टी को हथौड़े की मार से कहां तराश पाया हूँ
अथाह सागर को खारा कह कर ठुकरा दिया था कभी
गिरेबान की कटोरी को अपने, जगह जगह से रिसता पाया हूँ
डिग्रियों ने मेरी ऊँचे तीर मारे हैं बेशक
हसीन चहरों को फिर भी कहाँ पढ पाया हूँ
वक्त के धागे बुनते रहे जिन्दगी की मशीन में वो कैसी थानें
रुखसत हुआ जब साथ में सिर्फ दो गज कफन पाया हूँ
मैं वो मीन हूँ तेरी मेहर के सागर का
मोती में ढूंढू तुझे सीपियों में कहां पाया हूँ
जिन्दगी समझो भले मुझे, मौत का मैं साया हूँ
पल पल मरते सोंच रहा क्या खोया क्या पाया हूँ
बेहतरीन…………………….
बहुत सूंदर………………………….लाजवाब……………..
अति सुन्दर …………!!
बहुत खुबसूरत………………. रचना ।