वो लौट आए थे फिर
मीलों का करके सफर
लहुलुहान था धवल शरीर
हौंसला लेकिन था बुलंदी पर
साथ लाए थे भविष्य अपना
नई पीढ़ी का सजाने सपना
कहानियों में अबतक जिन्हें देखा था
अरमानों ने जहाँ बुनियाद रखा था
वो दरख्त वो झील कहाँ गये
हरियाले खेत खलिहान कहाँ गये
यहीं पर तो प्रगति का बीज बोया था
इक घर बना कर शांति से सोया था
हवा भी अब मटमैली चादर है
दिलों में ईर्ष्या, द्वेष और डर है
फूल भी सहमे से खिल रहे हैं
भ्रूण कोख में मरे मिल रहे हैं
सिर्फ कौवे दिखते हैं तीतर बटेर नहीं
गांव में अब शगुन, महुआ के पेड़ नहीं
मन की तरह पानी भी काला पड़ गया है
विष- द्रव्यों से धरती पर छाला पड़ गया है
ये किसे मार रहे हैं खेतों में विष पाट कर
घर बने या कितने उजड़े पेड़ों को काट कर
ये क्यों लड़ रहे धरती को टुकड़ों में बांट कर
पराये बनाते हैं क्यों हमें, अपनों से छाँट कर
क्यों बनाते काला विषैला धुआं ये कारखाने
कैसी ये प्रगति और किसके लिए क्या जाने
मशीनों के भांति दिशाहीन बस बढ़े जा रहे हैं
शांति की खोज में क्यों ये ढोल बजा रहे हैं
ये कैसा मौसम है कि वसुदेव कुटुम्ब इतना सिकुड़ गया
आदमी खुद से दूर और मशीनों से जुड़ गया
ये भौंरे फूल नदी झरने पेड़ पंछी सब बेमानी लगते हैं
दया करुणा प्यार सच्चाई अब कहानी लगते हैं
जहाँ पैसों से उन्नति और सुख तौलते हैं
धर्म भी जहां हिंसा की बोली बोलते हैं
जहां बच्चे कीमत माँगते हैं अपनी मुस्कान की
खून हो रहा है यहाँ मानवता की पहचान की
चलो यहां नहीं रुकना एक पल हमें
घर नहीं बनाते दहकते श्मशानों में
प्यार बसता हो जहाँ वहीं बस जाएंगे
पृथ्वी नहीं तो चाँद तारों पर घर बनाएंगे
वक़्त के अनुरूप बदलते सामरिक जीवन का विश्लेषणात्मक निरूपण ………….अति सुन्दर उत्तम जी !!
बेहतरीन परिभाषित किया है आपने प्रगति को. अति सुंदर……………….
Thank you Vijay ji.
Marvellous thoughts Uttam ji.
Ashirvad ke liye dhanyawad
उम्दा रचना…………………… बहुत बढ़िया
Dhanyawad Surendra ji