देखता हूँ अक्सर खिड़की से, कुछ कोयल दाना चुगती हैं
फुदक फुदक कर चुगते चुगते फिर वो सब उड़जाती हैं
काश मैं भी उड़पाता, रंग आसमान के देखपाता
आज़ादी क्या होती है काश मैं भी जान पाता
पर हम सब तो उलझें हैं जीवन के जाल में
कैद हो चुकें हैं जिम्मेदारियों के जंजाल में
दिखती नही पर बेड़ियाँ तमाम हैं हर हाल में
काश मैं भी उदपाता, ये साड़ी बेड़ियाँ तोड़ पाता
आज़ादी क्या होती है काश मैं भी जान पाता
फिर आज एक कोयल मुझसे बोली क्या समझते हो तुम खुदको
तुम तो खुद कैद हो, क्या कैद करोगे तुम मुझको?
पंख तो कट चुकें हैं तुम्हारे, पैर भी अब छिलने को हैं
किसके पीछे भाग रहे हो न जाने ऐसा क्या मिलने को है!
आ तोड़ इस जाल को, आ चल संघ मेरे आकाश को
फिर पंख तुझको लग जाएंगे, आबाद तू हो जाएगा
जीवन के इस जंजाल से आज़ाद तू हो जाएगा
पलक झपकी, सपना टूटा, बैठा था एक कमरे में
खिड़की खुली थी अब भी, कोयल बैठी थी अब भी
शोर मचा, वो उड़ गयी, और मैं…. काश !!!!!
काश मैं भी उड़ जाता
काश मैं भी आज़ाद हो जाता !!!!
राहुल
बहुत अच्छे भाव हैं….हमारी तरह पंछी भी अपने अलग संसार में कैद होंगे…क्या पता…. यूं ही लिखते रहिये…..
धन्यवाद….!
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kumarrahulblog
बहुत सुंदर भाव……………………………..
खूबसूरत भावनात्मक रचना …………!!
very nice sir……………..
Thankyou sir….
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kumarrahulblog
very very nice……………