मेरे आस्तित्व की पहचान मुझसे खो गयी है ,
मेरी जमीं आसमाँ सी दूर हो गयी है।
कल तक जिस जिंदगी को टूट कर चाहा था ,
आज वही जिंदगी जीने की चाहत क्या गयी है ?
इस कदर यूँ जीना बोझिल लगता था कभी ,
आज बोझिल जिंदगी ही जिंदगी हो गयी है।
मेरी आस्तित्व की पहचान मुझसे खो गयी है ,
मेरी जमीं आसमाँ सी दूर हो गयी है।
वाह….क्या बात है…लाजवाब…….
बहुत बहुत धन्यवाद बब्बू जी।
बहुत खूब मञ्जूषा जी ………..
बहुत बहुत धन्यवाद शिशिर जी। यह भी मेरी अधूरी ही कविता थी ,अब सारे दिन याद कर पूरी करी है। असल यह सब मेरी भूली बिसरी कविता है और यह साईट बार बार हैंग कर जाता है इसलिए आधी अधूरी ही पब्लिश कर दी थी ,वैसे भी कविता में कुछ पूर्ण अपूर्ण नहीं होता है। अगर एक बार फिर पढ़ने का कष्ट करें।