हे अश्रु के धार सुन
तू जो बह रहा अपार सुन
तू रोक अपनी रफ्तार सुन
है मेरी पीड़ा मौन जो
तू न दे उसे फुहार सुन
हे अश्रु के धार सुन ।
हे अश्रु के धार सुन
तेरा जो निर्मल सलिल है
उर में दबा दुख जटिल है
मन भी बोझिल है
तन भी बोझिल है
स्वपनों का रंग
पंकिल-पंकिल है
तेरा धार भी बड़ा हीं
चोटिल है
फूट-फूट कर
यूँ बहता है
क्या छिपाऊँ
क्या दिखाऊँ
उर को खाली कर देता है। ।
हे अश्रु के धार सुन
तू क्यों बहता बारमबार है
क्यों छलकाता पीड़ा हर बार है
तू बाँध मेरी पीड़ा को सुन
न कर मुझे
यूँ बेबस तू
बह-बह कर मेरे
अधरों को चूम
मेरे कंठो को अब न
बिंध तू
हे अश्रु के धार सुन ।
अलका
अलका जी बहुत अच्छा लिखा है अपने .दिल का गुब्बार निकालने के लिए अश्रुओं का बह जाना ही बेहतर होता है
बहुत -बहुत धन्यवाद मैम………..
यह गहन प्यार है जो अश्रू ही जानते….जुबां में जिसके बोल नहीं…… लाजवाब….बेमिसाल……
बहुत -बहुत धन्यवाद शर्मा जी……….
अलका तुम्हारी रचनाए मुझे बहुत प्रभावित करती है. बेहतरीन
बहुत -बहुत धन्यवाद सर…….. आपकी प्रतिक्रिया मुझे सदैव प्रेरित करती है।
बेहतरीन रचना……………गुबार का निकलना जरुरी है चाहे वो अश्रु की धार बनकर ही निकले.
आपका बहुत -बहुत धन्यवाद……….
दर्द का भाव अश्रु के रुप में तस्वीर की तरह चित्रित कर दिया अलका जी !!
बहुत -बहुत धन्यवाद मैम…….
bahut acche alka ji……………………..
बहुत -बहुत धन्यवाद मनी जी……..