ममता की बैसाखी टोड़ कर
अरमानों के पंख जोड़ कर
मासूमियत का दामन छोड़ कर
पांव पर अपने खड़े हो गए हैं
अब हम बड़े हो गए हैं
रुके हैं आँसू पलकों को सी कर
हँसी विषैली व्यंग्य कटाक्ष पी कर
पैसे की उम्र में रिश्तों को जी कर
हृदय लोहे से ज्यादा कड़े हो गए हैं
अब हम बड़े हो गए हैं
बच्चों की हँसी अब सस्ती लगती है
महंगी शराब की भीड़ मस्ती लगती है
संवेदना से दूर अश्लील कश्ती लगती है
लहू भी शाक से हरे हो गए हैं
अब हम बड़े हो गए हैं
हर धड़कन में जब तेरा अहसास होता है
जब समर्पण से जीवन खास होता है
हर पल सेवा में खुशी का आभास होता है
लगता है, प्रेम के छलकते घडे हो गए हैं
अब हम बड़े हो गए हैं
Nice presentation and nice thought. really अब हम बड़े हो गए हैं
Thank you very much Vivek ji
हर बार की तरह उत्तम जी की उत्तम प्रस्तुति …………!!
“कोई मुझको भी कविता सिखा दे” …………..रचना पर आपकी प्रतिक्रिया अपेक्षित है
Dhanyawad Dharmendra ji.
Sir, aap hamare guru hain. It resembles your humbleness and eagerness to learn every time.
bahut umda soch sir apki………………….
अति सुंदर आदरणाीय
Thanks Abhishek
बेहतरीन……………अब हम बढे हो गए!
Thanks for the encouragement
बहुत उम्दा स्तरकी रचना
Thanks for your appreciation
जब समर्पण का भाव जगने लगे तो. सच्चे माने में हम बड़े हो गए .सुदर रचना उत्तम जी
Dhanyawad Kiran ji