बाबू जी एक रोटी को हमेशा
भाईयों में बाँटते थे एक जैसा
रोटी एक थी उसके हिस्से हम
रोटी एक थी पर खुश थे हम
खून का रिश्ता वो हमारा
रोटी का रिश्ता बना न्यारा
उम्र के साथ रोटियाँ बढती गई
बंटवारे का हिस्सा परवान चढ़ती गई
फिर सिर्फ हिस्से का हिसाब रह गया
न जाने वो एक रोटी कहाँ खो गई
माया का जादू ऐसा चल गया
भूख मर गई, लालच पल गया
एक रोटी बंट कर भी परिवार बनाती है
एक कोशिका बंट कर ही शरीर बनाती है
एक देश, एक मानवता,बनती है पृथ्वी एक
बंट पाये त्रिदेव भी जब,बनती है सृष्टि एक
बंटना और बंट कर बनना ही है निरंतर ब्रम्ह
बनते प्रेम बाँध से, बाँटते लालच, ईर्ष्या, दंभ
जीवन का फलसफा कह दिया आपने …………बहुत खूब उत्तम जी !!
Aapka bahut bahut abhar
पूर्णरूपेण सत्य………….
Thanks and regards
बहुत उम्दा रचना उत्तम जी
Sir,need your blessings and guidance
Very very true………………….
बेहतरीन रचना सर………..
lajwab sir…………………..
आदरणीय उत्तम जी बहुत बढ़िया