प्राणों में तेज जगाती तुम सूर्य बन कर
दिलों में प्यास बढ़ाती तुम सूर्य बन कर
धरती को उर्वर बनाता है प्रेम का बीज
जीवन के कोख में आती तुम सूर्य बन कर
अपनी ही परछाईयों की सूरत क्यों डराती है हमें
परछाईयों को बनाती और मिटाती तुम सूर्य बन कर
गर्द के घाव रोग संक्रामक उगलते हैं सदा
हवन की आग से नहाती तुम सूर्य बन कर
आग हो ऐसी कि हर पत्थर कराह उठे
सागर को भी बादल बनाती तुम सूर्य बन कर
तप तप कर के ईश्वर बने बुद्ध और महावीर
इस कदर आत्मा को तपाती तुम सूर्य बन कर
नहीं डूबता अहसास तेरा दर्द के समंदर में भी
चाँद के आईने में मुंह दिखाती तुम सूर्य बन कर
आनंद के क्षितिज में आस्था का पूर्व बन कर
अमर प्रकाश दिलों में लाती तुम सूर्य बन कर
बेहद खूबसूरत उत्तम जी क्या खूब ग़ज़ल मारी है आपने ……..आपकी लेखनी की मुख्य विशेषता है की रचना में गूढ़ भावो के साथ आत्मबोध व जीवन दर्शन की छाप मिलती है ………..लाजबाब उत्तम जी !!
Thank you Dharmendra ji.
Just trying to understand life in my own way.
NICE POEM EXCILANT
अति सुन्दर आदरणीय
लाजवाब………………
Many thanks
जैसा कि निवतियां जी ने कहा बेहतरीन ग़ज़ल उत्तम जी. कमाल की सोच और उम्दा शब्द.
Many thanks. SUN plays a very important role in our life.
उत्तम जी ,बेहद्द खूबसूरत रचना ,ऊर्जा के बिना प्राण ही कहाँ .जीवन का स्त्रोत ऊर्जा ही तो है बहुत अच्छा लिख्हा है आपने