बह्र: 2122 2122 212
काफिया -अता, रदीफ़ नहीं
ऐ खुदा तू क्यों मुझे दिखता नहीं
चाहतों का अब दिया जलता नहीं।।
वक्त भी देता मुझे धोखा सदा
साथ मेरे ये कभी टिकता नही।।
जख्म ताजा है अभी दिल का मेरे
जख्म का चारा कोई मिलता नहीं
एक सांचे में ढले होते अगर
प्रेम जग से फिर कभी चुकता नहीं।
फासले क्यों लोग रखते है यहाँ
फासलों से प्रेम निज बढ़ता नही।।
अजनबी सब एक दुजे से बने
आज याराना कही दिखता नहीं।।
खोजता है आदमी भगवान को
और उसका कुछ पता मिलता नही
ये जवानी चार दिन की चांदनी
नूर इसका उम्र भर रहता नही।।
बाँट कर सब खा सकें अब रोटियाँ
ये इरादा फूलता फलता नहीं।।
भूलना मैं यार को चाहूँ मगर
याद कुछ उसके सिवा रहता नही
इस कदर जग में मिला है प्यार भी
‘नाथ’ दिल में अब गिला रहता नहीं।।
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*सुरेन्द्र नाथ सिंह “कुशक्षत्रप”*
बहुत सुंदर गजल …………………..
बहुत खूबसूरत सुरेंद्र …ग़ज़ल के माध्यम से जीवन के यथार्थ का सटीक चित्रण किया है आपने !!
धन्यवाद निवातियाजी
बहुत ही खूबसूरत ग़ज़ल आपकी अच्छी सोच के साथ l
राजीव जी कोटि कोटि धन्यवाद
Bahut achhe, Surendra ji
आदरणीय श्री उत्तम जी आभार
बेहद बेहद उम्दा…….क्या बात है…..लाजवाब……..
आदरणीय सी एम् शर्मा जी आभार आपका
बहुत ही सुन्दर ग़ज़ल …सर।।।।
Superb…
धन्यवाद स्वाति जी…….
बेहद खूबसूरत ग़ज़ल सुरेन्द्र जी !!
रचना पसंद करने के लिए धन्यवाद मीना जी
सुरेंद्र अति सुन्दर ग़ज़ल. एक स्थान पर चारा शब्द के स्थान पर कुछ और बेहतर शब्द रख सको तो अच्छा होगा.
हृदय तल से धन्यवाद आदरणीय श्री शिशिर मधुकर जी।
आपका सुझाव अति उत्तम। देखता हूँ, अगर कोई बेहतर शब्द प्रतिस्थापित कर पाऊ तो अवश्य करूँगा।