एक माँ बूढी सी,
जाने कैसे गिर गई
शायद किन्ही ख्यालों में,
कहीं वो तो खो गई |
अपनी व्यथा विचारते-२ ,
सड़क पार कर गई
लकिन फिर भी एक बाइक से,
वो तो टकरा गई |
गिरने के बाद तो ,
वहीं बेहोश हो गई
कुछ लोगों की मदद्त से,
होश में तो आ गई |
होश आने पर भी,
वो तो चुप सी हो गई
कुछ न बताने को ,
वो तो मौन हो गई |
ज्यादां ही पूछने पर,
मुहँ तो खोल गई
डर की सारी व्यथा ,
मुंख से बोल गई |
यह सुन संजीदा तेरी,
आत्मा भी स्तब्ध रह गई
घर न जाने का ,
बहाना वो तो कर गई |
बहु बेटा का खोफ,
शब्दों में कह गई
यह सुन सारी जनता,
हैरान सी रह गई |
किसी तरह से घर जाने को,
माँ तो मान गई
लकिन कुछ न कहने का,
वादा हमसे ले गई |
जिंदगी से नया परिचय ,
हम सबका करा गई
मदद्त करने वालों को,
यथार्त सा दिखा गई |
Kamlesh Sanjida
भावुक एव मार्मिक वृतांत को बहुत खूबसूरत कविता के माध्यम से पेश किया आपने अति सुन्दर !!
आपकी इस अद्भुत कृति के लिये आपको मेरा कोटि कोटि प्रणाम है। इस कविता तो पढ़ते ही एक आक्रोश तो कही एक दर्द उठता है। बहुत ही खूब लिखा है आपने कमलेश जी।
बेहद बेहद खूबसूरत….मार्मिक……………
अति सुंदर मार्मिक रचना………………………….
Nice observation of rot in our family system
दिल को छूती हुई रचना……………….. ।