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समय अंतराल पर भिन्न सोच के रूप ।
पाहन से बात करते झुके मानव स्वरुप ।
झुके मानव स्वरुप कहें दया करो दानी ।
एक कथा को गए अनगिनत बनी कहानी ।
कहैं विजय कविराय हौसलों की हो जय जय ।
सवाल जवाब न दें जब तक आये ना समय ।
विजय कुमार सिंह
vijaykumarsinghblog.wordpress.com
लाजवाब……….सही कहा आपने..होंसले तो बुलंद होने ही चाहिए … और बिना वजह परेशान भी नहीं होना चाहिए ……जब तक समय नहीं आया….तब तक कुछ नहीं मिलना….
सराहना के लिए आपका ह्रदय से आभार.
विजय इस रचना का शीर्षक प्रार्थना उचित नहीं लग रहा. जो कहना चाह रहे हो पूर्णतया उभर कर नहीं आ पा रहा है.
उपयुक्त शीर्षक suggest कीजिये मैं बदल दूंगा. लेकिन अभी तो वेबसाइट भी पूरी तरह काम नहीं कर रही है इसलिए अभी तो चेंज भी नहीं हो पायेगा. ह्रदय से आभार.
आदरणीय बेहद सुन्दर
बहुत बहुत धन्यवाद अभिषेक जी.
बहुत खूब …………………………………. विजय जी !!
सराहना के लिए आपका ह्रदय से आभार.
क्या बात !! क्या बात !! क्या बात !!
बहुत बहुत धन्यवाद शीतलेश जी.
उपयुक्त शीर्षक suggest कीजिये मैं बदल दूंगा. लेकिन अभी तो वेबसाइट भी पूरी तरह काम नहीं कर रही है इसलिए अभी तो चेंज भी नहीं हो पायेगा. ह्रदय से आभार.