कल मै हसती खेलती आँगन में
आज शर्मों लिहाज़ से ढकी हूँ
कल थी मै माँ की लाडली
आज सासू माँ की बहु हूँ……..
कल मै चिड़ियाँ उड़ते गगन की
आज रसोई की सजावट हूँ
कल जो थी मै घर-घर खेली
आज उसी घर की बनावट हूँ….
कल थी मै पापा की परी
आज ससुर जी की आन हूँ
जो घर में रहकर सुरक्षित रहे
उनके लिए वही सम्मान हूँ….
इस दो चुटकी सिन्दूर ने मुझमे
आत्मविश्वाश ऐसा भरा
पाया मैंने पति का साथ
और ससुराल को मैंने अपना बना ही लिया…
पर इन दो चुटकी सिन्दूर की कीमत
अब मै अच्छे से समझ गयी
छूटा माँ बाप का साथ
और सहेलियों के संग हसी ठिठोली भी छुट गयी….
अब मेरे हर कदम पर मेरे पति का साथ है
दो चुटकी सिन्दूर लगाकर भूल जाओ मायका
यही समाज का इन्साफ है……
आपकी रचना सामाजिक होते हुये भी एक प्रकार का कटाक्ष करती है। बहुत बढ़िया लिखा है आपने।
Thank you so much sir….
बहुत ही खूसबसूरत लिखा है आपने….अमूमन हर जगह ऐसा ही है…..
haan sahi kaha aapne sir… thank you so much….
bahut hi umda bhav…………………………….
thank you mani ji…
स्त्री जीवन के सत्य को आपने बड़े भावुक तरह से प्रस्तुत किया है श्रीजा. अति सुन्दर
thank you sir…. these complements means alot to me…
नारी जीवन पर खूबसूरत प्रकाश डाला है आपने !!
thankyou so much sir….
बहुत ही खूसबसूरत…………………………..
thank you sir…..
औरत की सच्चाई यही है।
बहुत खूब………………. ।
सही कहा काजल जी…. बहुत बहुत धन्यवाद