चले जाते हो तुम छोड़कर
जैसे कोई नाता नहीं
नहीं देखते एक बार मुड़कर
जैसे घर भाता नहीं
यूँ कर देते हो तन्हा
तुम अपनी जोगन को
जैसे अधजली मरघट की बेल
तड़प रही हो यौवन को
तेरी यादों का तकिया बनाकर
बच्चों संग सो जाऊंगी
तुम चढ़ाना गर्दन भारती को
मैं दिल अपना चढ़ाऊँगी
प्रियतम तुम विचलित न होना
मैं यूँ ही सहती जाऊंगी
खून उठाकर मातृभूमि से तेरा
सिन्दूर अपना बनाऊंगी
बहुत ही सुन्दर भाव सिपाही की पत्नी के………बिना किसी फ़िक्र के अपने पति को देश के कुर्बान होने की बात कह रही है……..
शानदार सुंदर सृजन
मुझे पता नहीं यूं लग रहा की जो शुरू के दो पद हैं वह सिर्फ शिकायत के हैं वह भी ऐसे लफ़्ज़ों में जो की अतिंम पद है गौरव करने का वह उनसे कमज़ोर हो जाता…. शिकायत के शब्द कुछ और तरह से होते तो ज्यादा सफल लगता अंतिम पद….हो सकता मुझे ही ऐसा लगा….
बेहद खूबसूरत रचना राकेश जी