वर्ण पिरामिड
था
खड़ा
बस में
भीड़ बीच
हो असहाय
यूँही बेखबर
आने वाले पल से
आई कही से खुसबू
मदहोश करने वाली
दिल बेचैन सा होता गया
थी
बैठी
सुकन्या
अप्सरा सी
देख उसको
हुवा अवाक सा
भूल गया खुद को
बस उसे देखता रहा
मै बेबस सा, बेचैन सा
अपना अस्तित्व खोता गया
है
हम
अब भी
अनभिज्ञ
एक दूजे से
पर लगे ऐसे
है चिरपरिचित
उठता प्रश्न मन में
तूफान क्यों उठा तन में
क्यों आसक्ति हुई अन्जाने से
!!!!
!!!!
सुरेन्द्र नाथ सिंह “कुशक्षत्रप”
Lovely write Surendra
शिशिर जी धन्यवाद!
खूबसूरत…………..
बब्बू जी धन्यवाद
बहुत खूब……………..नए नए तरीकों का उपयोग कर रहे हैं. अति सुंदर………………..
विजय जी धन्यवाद
लेखन में क्षेत्र में इतना अलग अलग
अंदाज बस आप ही लोगों से
सिखने को मिलता है सुरेन्द्र जी
बहुत बढ़िया…………………. ।
काजल जी आभार …………………..!
बहुत बेहतरीन सुरेंद्र ………..!!
निवातियाँ जी धन्यवाद
वाह वाह… बहुत ही बढ़िया और खूबसूरत… सर।।।
स्वाति जी अति आभार आपका