कहीं रंग दिखे, कहीं बदरंग दिखे।
कहीं विरहिणी चिठ्ठी बैरंग दिखे।।
किसके किसके तन पर कपडे डाले।
आधुनिकता में सभी का अंग दिखे।।
हो कैसे स्वप्न साकार समता का।
ऊँच नीच की खाई बेढंग दिखे।।
लोकतंत्र का बेताल, सवाल पूछे।
निज सरकार से क्यों मोहभंग दिखे।।
हो जहर दवा में तो इलाज कैसे।
यहाँ दूध भी डिटर्जेंट संग दिखे।।
गरीब बेबस क्या संघर्ष करेगा।
वह खुद ही गरीबी से तंग दिखे।।
गरीब जन को कौन देगा सहारा।।
रबड़ रीढ़ की सरकार अपंग दिखे।।
हर चेहरे पर लगा नया चेहरा।
बूढ़े की शादी मीना संग दिखे।।
कारवाँ लेकर निकला था मै कभी।
पस्त, अब न कोई आस उमंग दिखे।।
मरते जमीर बीच इमान है कही
उसी आस पर जीवन सतरंग दिखे
!!!
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सुरेन्द्र नाथ सिंह “कुशक्षत्रप”
(दोस्तों यह एक रचना है प्रत्येक पंक्ति में 20 -20 मात्रा लिए, तथा अंत में एक गुरु! आप इसे गजल न समझ बैठे)
बहुत खुबसूरत रचना सुरेन्द्र …..
आपने रचना में यथार्थ को समेटकर नीरस भाव को अच्छे शब्दों में ब्यान किया है …..आप अंत में एक बंध सकारात्मक प्रेरक भाव का प्रयोग कर रचना को अधिक सोम्य बनाया जा सकता था ।।
प्रतिक्रिया के लिए दिल से आभार।
अच्छा लगा आपका सुझाव, जिसको ध्यान में रखते हुए एक बंध और जोड़ा हैं।
आप अवलोकन कर इस बदलाव के बाद रचना के भाव को बताएं।
सानुरोध
सुझाव को मान देने के लिए धन्यवाद आपका ……बेहतरीन समापन दिया रचना को अति सुन्दर ।।
सही कहा आपने सर. ..सुन्दर रचना
धन्यवाद आनंद जी
सत्यपरक रचना. गहन असंतुष्टी को प्रकट करती है.
शिशिर जी धन्यवाद!
बिलकुल ठीक फ़रमाया गरीब क्या संघर्ष करेगा जो खुद ही बेबस होता है ………………………. बहुत ही बढ़िया सुरेन्द्र जी !!
धान्यवाद सर्वजीत सिंह जी
यथार्थपरक सुन्दर रचना सुरेन्द्र जी !!
Meena Bhardwaj ji heartily thanks for your comment!
bahut hi sunder rachna aaj ke sach ko dikhati surendr ji………………………
धन्यवाद मनी जी आपको……………