उस रूपवती को देखकर
एक पल खुद को ठहराया था
खड़े चौबारे पर होकर जब
बालों को उसने सुखाया था
लग रहा था जैसे चंद्रमाँ
उग आया उस हवेली पर
चल रहा अकिंचन कोई
लेकर दिया हथेली पर
हे मालिक महान तूने
क्या क्या धरती पर बनाया है
शिप में मोती भर डाले
निर्जल मोती में जल समाया है
एक पंख में रंग बहुत
बेरंग से रंग बनाया है
हे पीताम्बर तू जग में
या जग तुझमे समाया है
दे दी किसी को सूरत प्यारी
सीरत किसी की दमदार है
खोटे को तू खरा बना दे
कैसा तू रचनाकार है
अल्हड़ सी है वो नदी
रूप ही उसका श्रृंगार है
मैं देख रहा था उस युवती को
मेहरबान जिसपर भरतार है
पर देखकर ये जमाना बोला
दोनों में कुछ सिलसिला लगता है
युवती तो है सालीन बहुत पर
लड़का कुछ मनचला लगता है
अच्छा है राकेश जी
शब्दों को अच्छा संवारा है आपने राकेश जी. सुनदर कविता
Good composition of words…………………..
सुंदर रचना………………….
सुन्दर……………….
सभी रचनाकार साथियों का आभार