मेरी मन-व्यथा —
चहुंओर हमें अंधियारे की
जयकार सुनाई देती है
निशचर की निर्भयता उर
हाहाकार सुनाई देती है
घनघोर घटा काली काली
उर ग्रहण भानु पर छाया है
अँधियारी आँधी की रातों में
हर दीपक अकुलाया है
भयभीत सभी जीवन प्राणी
लाचार हैं कुछ ना है बस में
किस मोड़ मौत मुँह खोलेगी
जीते बस इसी कश्मकश में
है धरा व्यथित, अति व्याकुल है
आभास मगर किसको इसका
हर इक व्यवहार पराया है
सबकुछ है पर कुछ ना इसका
खोती है चीर अरण्यायी
बस चीत्कार की आहट है
स्वर करुण, प्रेम के पाखी के
बैचैनी की चहचाहट है
कलकल करती सरिता भी तो
दलदल से हुई अति दूषित है
दानव ही लगते हैं मानव
सबको ही गरल विभूषित है
पशुओं का क्रंदन बहुत करुण
धेनु का दंडित मान हुआ
सृष्टि की शक्ति है विद्यमान
उसमें पर किसको भान हुआ
हो रही व्यसन से बाधित ही
मानव की हर स्वर्णिम मंजिल
मदहोश वासनाओं में सब
किसका अब कौन परखता दिल
प्रतिभाएं लुप्त हो रहीं, ना
परवाह किसी को किंचित है
इच्छा की दुल्हन आशा का
श्रंगार किए आशँकित है
हर जननी करती जद्दोजहद
जीवन की जंग बिताने में
भटके कपूत सारे गंदी
ख्वाहिश को रंग चढाने में
है दया धर्म की क्षति भारी
ईमान कहीँ ना मिलता है
कीचड़ में अति विष फैला हो
तो कोई कमल ना खिलता है
हैं लाख समस्याएँ फ़िर भी
अंधा हर इक इंसान बना
कुदरत पर सभी कुठाराघात में
दोषी हर हैवान बना
फ़िर कैसे लोटपोट होने के
तुमको शब्द सुनाऊँ मैं
लैला मजनूं के गीतों से ही
कैसे तुम्हें रिझाऊँ मैं
इसलिए प्रीत के छंदों को
विस्फोटित राग बना डाला
भटके दिल को कर दरकिनार
इक जलती “आग” बना डाला
जब तक कुदरत की कलियों का
उद्धार नहीँ हो पाएगा
तब तक मेरा दिल दामन से
अंगार नहीँ खो पाएगा
जब-जब हंसो के चोले में
यदि बोली काग सुनाएगा
तब-तब ये “देव” कलम से ही
इक भीषण “आग” लगाएगा
———कवि देवेन्द्र प्रताप सिंह “आग”
9675426080
आपती मनोव्यथा तर्कसंगत है ।
आभार निवातिया जी ????
देविन्द्र जी आज के समय के मुताबिक बड़ी भावात्मक और जोश दिलाने वाली रचना लिखी है आपने .बहुत २ बधाई
Lovely expression of feelings