क्या हुआ कब हुआ क्यूँ हुआ
ये सोच कर क्यूँ डरूं मै
जब हर रोज चाँद निकलता है
बिना डरे अपनी छाया से सबको अचंभित करता है
जब हर रोज धुप खिलती है
पूरा शौर्य खुद में समेटे सबको अचंभित करती है
जब हर सावन बारिष आती है
अपनी बूंदों से सबको हरसाती है
तो क्यूँ न हसूं मै
बताओ क्यूँ न लडूं मै
बूंद बूंद से घड़ों का भरना
बिना ठोकर की परवाह किये नदियों का बहना
हर अँधेरी रात के बाद एक नयी सुबह का आना
आंसू बहते आँखों में सपनों की चमक का बस जाना
क्या ये साबुत नहीं एक नयी आशा की किरण के लिए
पूरा जीवन हमारे इंतेजार में है
नयी उम्मीद एक नयी उमंग लिए
क्यूँ न जियूं खुशियों के साथ
क्यूँ जिद पे अडू मै
बताओ क्यूँ न लडूं मैं
कलियाँ जब खिलती है
पंखुड़ियों से सजती है
पंखुड़ियों से सजकर ही तो
वो एक खुबसूरत फुल बनती है
एक पंखुड़ी गिर भी जाये तो
उसकी खूबसूरती में होती न कोई कमी है
फिर एक खुशी न मिले
तो क्यूँ हमारी आँखों में नमी है
क्यूँ भूल जाएँ उन सपनों को
जो देती हमें ख़ुशी है
क्यूँ भूल जाएँ उन उम्मीदों को
जो लाती हमारे चेहरे पे एक नयी चमक सी है
क्यूँ न चमक उठूँ इन उम्मीदों के साथ
क्यूँ हारूं मै
बताओ क्यूँ न लडूं में
एक छोटी सी नाउम्मीदी हमारा रास्ता नहीं मोड़ सकती
एक छोटी सी हार हमारी हिम्मत नहीं तोड़ सकती
शोलों से लड़ने वाले अंगारों पर चलने से नहीं डरते
किस्मत में क्या है इस बात की परवाह नहीं करते
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सब मेरी मुट्ठी में है इस विश्वास पे विश्वास करती हूँ
किस्मत तो बस धोका है, बस अपने कर्म पे मरती हूँ
क्यूँ इस विश्वास को डगमगाने दूँ मै
क्यूँ पीछे हटूं मै
बताओ क्यूँ न लडूं मै
गिरकर उठना उठकर चलना, यही तो प्रकृति का नियम है
जो मिला वो हमारी इच्छा हमारा ही तो कर्म है
फल की चिंता किये बिना काम करना हमारा धर्म है
अपने धर्म कर्म को निभाने से क्यूँ पीछे हटूं मै
बताओ क्यूँ न लडूं मै
माना की मौसमों में पतझर भी आते है
हरी भरी हरयाली को बंजर कर जाते हैं
पर हर पतझर के बाद सावन भी तो आता है
एक नया जीवन एक नयी हरयाली लाता है
तो क्यूँ न इस सावन का जरा सा इंतेजार कर लूँ मै
इस पतझर के शोक को क्यूँ मन में बसने दूँ मै
क्यूँ न लडूं मै
जब धुप ने जलाना न छोड़ा
जब लम्बी राह ने चलाना न छोड़ा
जब दुःख के समंदर ने डूबना न छोड़ा
जब आंसुओं ने रुलाना न छोड़ा
जब चोट ने दर्द देना न छोड़ा
जब समय ने इम्तेहान लेना न छोड़ा
तो कैसे छोड़ दे ये आँखे सपने देखना
इन भीगी आँखों में सपनों को क्यूँ डूबने दूँ मै
बताओ क्यूँ न लडूं मै
ये कोई संघर्ष की ज्वाला नहीं मन को जलाती आग है
जिसमे जलकर सारी मुसीबतें, हो जाती राख है
गर जो अब न हिम्मत की, तो मिटटी में मिल जानि साख है
अब इस आग को न बुझने दूंगी मै
चाहे ये जितना भी जलाये
जलूँगी मै
सोच लिया है मैंने, लडूंगी मै
शपथ है ये मेरा, लडूंगी मै
बहुत खूबसुरत प्रेरक रचना ।
thanku ji…..
अति-सुन्दर रचना
thankyou sir…..
bahut badiya shrija ji………………
thankyou mani ji….
Sahi kaha aapne…zindagi mein har pal jhoojhna…ladna hi toh hai….ji ladta hai…jeet bhi ussi ki….bahut khoob….
जी बिलकुल….. बहुत बहुत धन्यवाद