आज उस पुराने झूले को देखकर कुछ बातें याद आ गयी..
कई बरस गुजरे जब वो नया था.. उसकी रस्सियाँ चमकदार थी.. उनमे आकर्षण था..
उन रस्सियों का हर तागा बिलकुल अलग दिखाई देता था..
उस ‘हम’ में भी अपने ‘अहम’ को सम्हाले हुए..
उनमे चिकनाहट थी..और उन्हें पकड़ने का सलीका था..
आज बहुत बरस गुजर चुके हैं उस बात को..
झूला भी पुराना हो गया है.. रस्सियाँ भी कमजोर मालूम पड़ती हैं..
अब रस्सियों में न वो चमक है.. न वो आकर्षण..
पर जब इन रस्सियों के तागों को देखता हूँ..
इन्हे अलग करना भी मुश्किल मालूम पड़ता है..
वक़्त के साथ एक दुसरे से रगड़ खाते जैसे ये एक हो गए हैं..
वक़्त की चक्की में पिस गया है अहम शायद..और बच गया है हम..
माना की वक़्त की मार से अब रस्सी कमजोर हो गयी है..
पर अब अनेक तागों वाली रस्सी नहीं..
अब सिर्फ एक तागा टूटेगा..
– सोनित
बहुत ही बेहद खूबसूरती से आपने रिश्तों को पिरोया है…सच में रिश्ते धागे ही तो हैं….प्यार से बंधे हों तो एक….वर्ना कई बन जाते…और टूट कर बिखर जाते अनगिनत टुकड़ों में…कमाल कर दी आपने…लाजवाब सोनीतजी….लाजवाब….
आपकी इस मूल्यवान प्रतिक्रिया के लिए धन्यवाद बब्बू जी.
कमाल लिखा आपने सोनित जी………………
शुक्रिया मनी जी…..
बेहद ख़ूबसूरत रचना सोनित जी……………
बहुत बहुत धन्यवाद विजय जी……………