घड़ियाँ बीतीं, सदियाँ बीतीं
बीते जाते हैं सारे पल,
हर बीते पल कि बाजी पर
एक स्वप्न सँजोना चाहता हूँ |
वह नींद नहीं आती मुझको
जो नींद मैं सोना चाहता हूँ ||
समय चक्र कि सीमा नहीं
बदलाव जीवन का सत्य सही,
शक्तिहीन मैं, ना बदल पाऊँ
बस सोच बदलता जाता हूँ |
वह नींद नहीं आती मुझको
जो नींद मैं सोना चाहता हूँ ||
सत्य-यथार्थ से न नाता हो
निरर्थक जो जीना आता हो,
जो जीवन को दो पल और सहे
ऐसे सपनों में खोना चाहता हूँ |
वह नींद नहीं आती मुझको
जो नींद मैं सोना चाहता हूँ ||
रह न पाया उस छांव तले
वो शीतलता, वो वृक्ष घने,
भविष्य के उस आवाहन में
ऐसे बीज मैं बोना चाहता हूँ |
वह नींद नहीं आती मुझको
जो नींद मैं सोना चाहता हूँ ||
– प्रणव कुमार वर्मा
बहुत खूबसूरत भाव हैं….पर मैं तीसरे पद के भाव शुरू में ही स्पष्ट नहीं समझ पाया…….
हम प्रत्येक पल ये समझते हैं कि हम कुछ सही या गलत कर रहे हैं | जब हम बच्चे होते हैं तो खुली आँखों से हीं कितने प्यारे सपने देखने कि क्षमता रखते हैं | उम्र से साथ हम अपने हर कार्य को तथ्यों से जोड़ने लगते हैं, उनमें जीवन के मायने ढूँढने लगते हैं | मेरे मन के भाव से तो ये नपी तुली ज़िन्दगी हीं निरर्थक है | मैं तो वापस उन्हीं सपनो में खो कर देखना चाहता हूँ |
बिलकुल सही कहा आपने….पर सत्य यथार्थ से न नाता हो…निरर्थक जीना न आता हो….मुझे विरोदभासि से लग रहे…….
bahut sunder rachna……………….
खूबसूरत भाव…… बब्बू जी की सलाह पर गोर करे ….
सत्य यथार्थ से नाता कभी निरर्थक नही हो सकता ।।