कलम उठा!
कलम उठा! प्रहार कर!
कलम उठा…..
न दर्श मूक बन ये तन्त्र की दशा,
क्या फर्क तू खड़ा घिरा कसा कसा|
वृथा न कर रुदन निहार निज व्यथा,
तू चेतना विजित बने विचार कर!
कलम उठा!
कलम उठा, प्रहार कर!
कलम उठा!
जो हैं कृपाण तान सर खड़े समर,
ईमान बेचते ये तुच्छ दाम पर|
करेंगे सामना कहाँ अडिग तेरा?
तू लक्ष्य कर निशान शब्द बान पर।
कलम उठा!
कलम उठा, प्रहार कर!
कलम उठा!
बढ़ी अगर कुतंत्र की ये भ्रष्टता,
है गर चढ़ी उरोह तक ये धृष्टता|
कलम की झुकती शाख का प्रमाण है,
है कुंद पड़ी विज्ञता, विशिष्टता |
कलम उठा!
कलम उठा,प्रहार कर!
कलम उठा!
जो रुक गया विचार त्याग कर अभी,
न होगा मातृ ऋण उऋण सफल कभी|
अगर है अस्त्र वार सीमा पार तक,
तो लेखनी की धार भी तो कम नहीं।
कलम उठा!
कलम उठा,प्रहार कर!
कलम उठा!
कलम……उठा….
-‘अरुण’
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वाह….ओज से परिपूर्ण……कर्त्तव्य निर्वहन करने का आह्वान करती बेहतरीन रचना……?
धन्यवाद सर………
शानदार रचना …………………..
धन्यवाद सर……………
कलम का वार तलवार की धार से भी ज्यादा तेज होता है ………………………. बेहतरीन ……………. खूबसूरत रचना अरुण जी !!
धन्यवाद श्रीमन्………….
अरुण जी बहुत खूब कहा अपने कलम में तलवार से कहीं. ज़ियादा ताक़त होती है
भाव् महसूस करने के लिए आपको नमन!
बहुत अच्छी रचना अरुण जी **********
धन्यवाद मैम!……
हम कलम के सिपाहियों को अपने कर्तव्य का एहसास होना चाहिए
बहुत बढ़िया रचना कर्तव्य को पूरा करने के लिए जोर दे रही आप की रचना………………
धन्यवाद सर,………
भाव आप तक पहुचे
मैं कृतज्ञ हूँ,…..