मेरी जिंदगी भी एक नाटक की तरह हो गयी ।
मेरे संघर्ष का तमाशा देख मेरी असफलताओं पर ताली बजाते है लोग।
थकान से चूर बीच रास्ते गिर जाता मैं जब भी।
धक्का दे देकर किनारे लगा जाते है लोग।
भूखा-प्यासा खाली पेट सोता मैं जब भी।
बांसी रोटी के नाम पर सिर्फ सहानुभुती दे जाते है लोग।
सहारा लेने हाँथ बढ़ाता अपने मैं जब भी।
चंद सिक्को की भींख देकर बेसहारा कर जाते है लोग।
शीतलेश थुल !!
अभावों की पीड़ा का सुन्दर चित्रण
बहुत बहुत धन्यवाद शिशिर मधुकर जी।
bahut badiya sir,,,,,,,,,,,,,,
आपकी दुआ है मणि जी।
Dard ko bahut hi khoobsoorti se aapne piroya hai…..
आपकी इस सराहना के प्रति आभार प्रकट करता हूं शर्मा जी।
दर्द को लिखना आप जानते है। थोड़ा और गहराई लाने का प्रयास करें!
आपके बहुमूल्य सुझाव का सहृदय स्वागत करता हूं सुरेन्द्र नाथ सिंह कुशक्षत्रप साहब।