रंगे वफ़ा में बड़ा जूनून सा है
तेरे नाजुक हाथों में सकून सा है
कुछ तो है तेरी मासूम आखों में
न हारने देगा कुछ यकीन सा है
तलब दुनिया की बड़ी है बेरहम
हमें उल्फ़ते इश्क कुछ वहम सा है
ये जो तेरे इशारे में कयामत छुपी है
नाजों में छिपा एक जश्न सा है
मिला था तुझसे एक इन्शान हॊकर जो
आज तेरे सामने खड़ा एक मरहूम सा है
तू अदालत है मेरी कह देता हूँ आज तुझे
ये हमसफ़र भी तेरा कुछ संगीन सा है
प्यार के समझ इतना समर्पण! बहुत खूब
बहुत गहरे भाव के साथ किखा है आपने!
राकेश जी अंतिम पंक्ति में जुर्म शब्द की कमी खल रही है. विचार कीजियेगा. अन्यथा खूबसूरत रचना
बहुत ही खूबसूरत