दीवार से लगकर कोने में रोता है कोई ।
आंसुओं से अपने दर्द को भिगोता है कोई ।
लोगों के तमाशे से बचकर निकल रहा,
अँधेरी रात इस राह से गुजरता है कोई ।
अरमानों के दीपक अब जल चुके हैं सारे,
बुझे मन से इस घर में रहता है कोई ।
न बेकरारी बची है न इंतज़ार अब रहा,
अपने दिल की आग में झुलसता है कोई ।
जख्म होते तो शायद इलाज मिल जाता,
नासूर को साथ में लिए फिरता है कोई ।
विजय कुमार सिंह
vijaykumarsinghblog.wordpress.com
Note : ब्लॉग पर तस्वीर के साथ देखें.
Nice poetry vijay ji
सराहना के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद………………………….
बहुत खुब विजय जी
सराहना के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद………………………….
अत्यंत खूबसूरत किसी का दर्द व् तन्हाई समेटें रचना
सराहना के लिए ह्रदय से आभार………………………….
बहुत ही खूबसूरत ग़ज़ल….क्या बात है….अंतिम शेर तो लाजवाब….
जख्म होते तो शायद इलाज मिल जाता,
नासूर को साथ में लिए फिरता है कोई ।
सराहना के लिए ह्रदय से आभार………………………….
बहुत खूब……..बढ़िया!
सराहना के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद………………………….
bahut khubsurat rachna dard ko samete
सराहना के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद………………………….
ह्रदय की बद्धमूलता से निकला प्रत्येक लफ्ज विरह वेदना का अतिशय वर्णन करता है ………….बहुत खूबसूरत विजय !!
सर, रचना आपको पसंद आयी इसके लिए आपका बहुत-बहुत आभार. आपके सराहनीय शब्दों को भी शुक्रिया.
बेहद खूबसूरत रचना विजय जी !
सराहना के लिए ह्रदय से आभार…………………………
बहुत ही शानदार रचना जी।
बहुत-बहुत धन्यवाद सत्यम जी.
Bahut khubsurat vijay jee – ek dard jo dil ko bhija deta hai – wah…
बहुत-बहुत धन्यवाद bindu जी.
बहुत ही बढ़िया …………………….. विजय जी …………………… ज़बरदस्त !!
सराहना के लिए ह्रदय से आभार सर ……………………..
विजय जी बहुत ही खूबसूरत ।
बहुत-बहुत धन्यवाद Kajal जी.
very nice , well said Vijay ji
Thank you very much.
बहुत खूब
निशब्द हूँ
वाह
इन्तजार होता है नज़रों को आप की उपस्थिति का, ये मुलाकात भी एक बहाना है. बहुत-बहुत धन्यवाद अरुण जी.