अमीर गरीब का ना कोई करो पैसो से तोल,
कुदरत के अन्दाज मे तो इसका है नही कोई बोल ।
अपने घर बार त्यागकर पैसे कमाने की धुन मे,
चले आते है और रुलते है सड्को की घुन मे।
अपनी गांवो की माटी त्यागकर,
माई के अपार प्रेम को त्यगकर,
मुसाफिर क्यो चल दिये हो पैसो के प्यार पर।
जो समझ ले कुदरत के दस्तूर को,
वही है जन्नत के लायक,
जो ना समझ सका इस रहस्यमय जीवन का सार,
उसका तो जीवन है उस करतार के हाथ।
जन्नत यह देह मिली उस मालिक से रखो इसका खयाल,
मुफ्त मे दे डाली हुन्दा यन्त्र खुदा ने बेशुमार।
जिसके पास है तन्दुरुस्त य्ह शरीर,
कोहिनूर के मालिक से भी बडा औदा है उसका काफिर।
सच लिखा है आपने! कुदरत के दरबार में हर कोई गरीब होता है
उर्मिला आपकी रचना के भाव यथार्थ से परिपूर्ण है … रचना को अवलोकन कर सुधार मांगती है ।
बहुत खूब………….
khubsoorat…….
यथार्थ से परिपूर्ण रचना ………………………………….