मेरे आँख मे वो मंजर कैसे दिखाई दे।
खुदा के घर से आया हूँ कहो कैसे सफाई दे।
वही मंदिर मे बसता है वही मस्जीद मे बसता है,
जो तेरे खोट है दिल मे तुझे कैसे दिखाई दे।
रगो मे दौङते रहने का मतलब नही साहेब,
जब तक आँख मे न आए लहू कैसे दिखाई दे।
बङी सुन्दर सी थी कल आज लूटी खुद के हाथो से,
फिर सोने की चिङीया सी भारत कैसे दिखाई दे।
अगर सवाल न छेङू तो सब अपाहिज से दिखते है,
जो उनके आग है दिल मे वो कैसे दिखाई दे।
ऋषभ पाण्डेय “राज”
बहुत सुंदर कोशिश है आपकी…..मेरी आपत्ति एक शेर को ले के है जो महान शायर मिर्ज़ा ग़ालिब साहिब का आपने लिया है तोड़ के…..आप उनके नाम से यूं का त्यों रख सकते थे…..जो इस तरह से है….”रगों में दौड़ते फिरने के हम नहीं कायल….जब आँख ही से ना टपका तो फिर लहू क्या है”……..नहीं पता होता मुझे तो मैं वाह वाह कर सकता था……
मान्यवर गालिब के पंक्तियो हमने अपने होश ओ हवाश मे अपनी गजल मे अपने ढंग से कहने की कोशीश की है।
ऋषभ जी बब्बू की प्रतिक्रिया को गंभीरता से लीजियेगा।
आपकी सोच को सलाम ऋषभ जी!
जी आदरणीय सुरेन्द्र नाथ जी, सी एम शर्मा जी के प्रतिक्रिया को गंभीरता से लेते हुऐ अपने डायरी मे इन पक्तियो मे तबदिलीयां कर चुका हूँ।
अत्यंत खूबसूरत ……………..