एक अबोध मन
ये क्या कर रहा
अपने नाजुक हाथों से
सबका पेट भर रहा
मजबूरी इतनी कि
बाल कृषक बनना पड़ा
हर खुशी परिवार को मिले
ऐसे तनकर हुआ खड़ा
कैसे एक माँ बाप का हीरा
धूप में तपता जल रहा
सबका पेट भर रहा.
करता हर जिम्मेदारी का निर्वहन
ढोता कंधो पर भार
पर व्यथित मन
कलम किताबें कहीं
दूर क्षितिज पर
वह अंगारों पर चल रहा
सबका पेट भर रहा.
नर्म हाथों में
हंसिया कुदाल
फावडा देखा
हल बैल के पीछे पीछे
बनती जीवन रेखा देखा
कसक कलेजे में
टीसती चुभती
भविष्य का एक सितारा
कैसे पल रहा
सबका पेट भर रहा.
काल क्रूरता की निर्ममता
दिखता जाता घोर विषमता
किसके दोजख का ये फल है
हँसता बचपन ढल रहा
सबका पेट भर रहा !!
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डॉ.सी.एल.सिंह
बाल मजदूरी और उसके चलते बच्चों के खत्म होते बचपन की तस्वीर खिचती रचना!
बिलकुल सत्य कहा है आपने…क़ानून भी हैं पर जब तक हम खुद पालन नहीं करते उनका….असर होना बहुत मुश्किल है….बहुत ही खूबसूरत लिखा अपने….
इंडिया में हर चीज़ का कानून बना हुन है पर कुछ को पता नहीं और जिनको पता है वो अमल नहीं करते….बहुत बढ़िया रचना आपकी
बाल मजदूरी पर खूबसूरत रचना……………….
बाल श्रम के प्रति सजग भावनाओ को बहुत अच्छे शब्द दिए है आपने डॉ. साहब… …..बहुत अच्छे.!!
आशा करते है हम जैसे तुच्छ प्राणी के द्वारा संजोये शब्दो पर भी अपने विचार प्रकट कर हमे अनुग्रहित करेंगे !!
बाल श्रम के मुद्दे को छूती अच्छी रचना
आप सभी भद्र जनों को बहुत बहुत धन्यवाद
हम आपके आभारी हैं
आपकी महिमा भारी है
बहुत बढ़िया …………………………… लाल जी !!
बहुत अच्छी रचना सर ।