वह्र-122 122 122 122
निशा-मध्य धीरे से घूँघट उठेगा।
सुघर रूप वधु का नयन में बसेगा।।
प्रतीक्षा हृदय जिसकी करता रहा है।
उसी रात्रि का इंदु हिय में खिलेगा।।
मुदित होंगे मन सुख के सपने सजेंगे।
अमित स्रोत सुख का उमड़ के बहेगा।।
छिपा आज तक था जो अव्यक्त हिय में।
बना प्रेम-सागर तरंगें भरेगा।।
नयन बंद होंगे अधर चुप रहेंगे।
मुखर मौन ही हाल हिय का कहेगा।।
खिला पुष्प-यौवन बिखेरेगा सौरभ।
भ्रमर पी अमिय मत्त आहें भरेगा।।
मिलन की प्रथम रैन होगी सुधामय।
अधर की छुवन से सकल तन खिलेगा।।
रचना-रामबली गुप्ता
हिय=हृदय
इंदु=चंद्रमा
अव्यक्त=जो कभी कहा न गया हो
सौरभ=सुगन्ध
भ्रमर=भँवरा
अमिय=अमृत, सुधा
बेहतरीन……………..
अतिशय आभार आद० विजय कुमार जी
हिंदी साहित्य पर आपकी पकड़ रचनाओ में साफ़ झलकती है ……….प्रायः ग़ज़ल आदि में उर्दू का उर्दू मिश्रित शबो का प्रयोग अधिकतम किया जाता है…..पूर्णत: हिंदी शब्दावली में गजल दुर्लभ ही मिलती है……आपका इस और कदम सराहनीय…………. लाजबाब रामबली जी !
आद० निवातियाँ जी रचना पर आपके प्रोत्साहन से अभिभूत हूँ। हृदय से आभार
बेहतरीन…………..
अतिशय आभार बन्धु
शानदार प्रेमभाव भरी रचना
रचना आपको पसंद आई इसके लिए हृदय से आभार आद० शिशिर जी
रामबली जी इतनी शुद्ध हिंदी के शब्दों के साथ मैंने अपने जीवन में पहली बार गजल देखि। मै भावविभोर हो गया। आप की समझ और शब्दों पर पकड का मै कायल हूँ।
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वहां पर विचारो का आदान प्रदान भी हो सकेगा
आद० सुरेन्द्र कुमार जी आपके सराहना के शब्दों से रचनाकर्म के प्रति मनोबल और बढ़ा है। इसके लिए आपको हृदयतल से आभार। आपका वाट्सएप नम्बर एड कर चुका हूँ और संदर्भित संदेश भी प्रेषित कर चुका हूँ।सादर