कभी कभी मैं सोचता हूं..
किस शाख से गिरा हूं मैं..
क्युं इतना सरफ़िरा हूं मैं..
वो उंची, वो लम्बी या वो छोटी वाली..
पता नहीं किस पर लटकता था..
कोई बयार आकर कभी गुद्गुदा देती..
तो कभी मैं उसे छेड़ दिया करता था..
क्या दिन थे वो..
मुझे याद है आज भी..
हम शाखों के लिए लड़ते थे..
पंछियों के लिए लड़ते थे..
मेरी शाख तुझसे ऊंची..
मेरी शाख पे ज्यादा पंछी..
और न जाने क्या क्या..
पर कोई फ़र्क नहीं पड़ता.. जब देखता हूं..
कि हर शाख उसी तने को पकड़ कर खड़ी है..
जिसकी जड़ का सिराहना बना कर लेटा हूं आज..
वो छोटी शाख का पत्ता भी बगल मे लेटा है..
कोई फ़र्क नहीं पड़ता..
यही तो कहता हूं तुमसे..पर तुम पढने लिखने वाले..
लिखते हो किताबों में अक्सर..सूखे पत्ते चरमराते हैं..
© सोनित
wah sonit ji bahut badiya……
dhanyvaad Mani ji………..
क्या बात है….बहुत ही उम्दा……
Dhanyvaad Babbu ji……..
सुंदर भावों से युक्त रचना……………….
shukriya Vijay ji……………
नज़रिए का महत्त्व बताती उत्तम रचना
dhanyvaad Shishir ji………………
दार्शनिक भावो से सजी आत्मवलोकन कराती खुबसुरत ऱचना……. ।।
Shukriya sir…………….
सोनित जी, किस पौधे से गिर हूँ मई, क्या लाजबाब रचना।
दार्शनिक अंदाज!
aabhar Surendra ji………………
बहुत खूब …………………………………………… सोनित !!
shukriya Sarvajit ji………….
अति सुन्दर रचना सोनित जी!
dhanyvaad Meena ji………